आत्ममंथन की जरूरत
 इलमा अज़ीम 
आज का समाज उपलब्धियों की अंधी दौड़ में फँसा हुआ है। इसका शिकार वे बच्चे हो रहे हैं, जिनकी उम्र अभी खेलने, सीखने और सहज विकास की है। चार-पाँच साल की उम्र में जब बच्चा दुनिया को समझना शुरू करता है, तब उससे अपेक्षा की जाती है कि वह तय समय पर उठे, तय पाठ्यक्रम पूरा करे, परीक्षा में अव्वल आए और भविष्य की दिशा अभी से तय कर ले। 

यह सोच न केवल अवैज्ञानिक है, बल्कि अमानवीय भी है। बाल मनोविज्ञान स्पष्ट रूप से बताता है कि शुरुआती वर्षों में बच्चे का मस्तिष्क सबसे अधिक लचीला और संवेदनशील होता है। इस दौर में उस पर डाला गया दबाव उसके व्यक्तित्व, आत्मविश्वास और स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ता है। नींद की कमी, तनाव और भय की स्थिति में सीखने की प्रक्रिया बाधित होती है। फिर भी, हम सुबह कच्ची नींद में बच्चों को जगाते हैं, उन्हें बिना नाश्ता कराए स्कूल भेज देते हैं और उनसे उम्मीद करते हैं कि वे पूरे दिन सक्रिय और एकाग्र रहेंगे। यह उम्मीद वास्तविकता से कोसों दूर है।

 भारी स्कूल बैग वर्षों से चर्चा का विषय रहे हैं। सरकारी दिशा-निर्देश और न्यायालयों के आदेशों के बावजूद, आज भी छोटे बच्चे अपने वजन से अधिक बोझ कंधों पर ढोते दिखाई देते हैं। यह केवल शारीरिक समस्या नहीं है; यह मानसिक संदेश भी देता है कि शिक्षा एक बोझ है, आनंद नहीं। जब शिक्षा बोझ बन जाती है, तो बच्चे के मन में सीखने के प्रति स्वाभाविक जिज्ञासा धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है। वह सीखने के बजाय गलती से डरने लगता है, और यही डर आगे चलकर तनाव, चिंता और अवसाद का कारण बनता है। भोजन और दिनचर्या भी बच्चों के स्वास्थ्य में अहम भूमिका निभाते हैं।




 यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि हम बच्चों से आखिर चाहते क्या हैं। क्या हम उन्हें खुश, स्वस्थ और संवेदनशील इंसान बनाना चाहते हैं, या केवल अंक और पदवी हासिल करने वाली मशीन? जब अभिभावक अपने बच्चे को दूसरों से तुलना करते हैं—“फलाँ का बच्चा यह कर रहा है, तुम क्यों नहीं”—तो वे अनजाने में उसके मन में हीन भावना भर देते हैं। यह तुलना सामाजिक होड़ को जन्म देती है, जिसमें हर कोई आगे निकलने की कोशिश करता है, चाहे उसकी कीमत बच्चे का बचपन ही क्यों न हो। शिक्षा व्यवस्था को भी इस संदर्भ में आत्ममंथन करना होगा।

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