बांग्लादेशी हिंदू: भय के साये में अस्तित्व
- नृपेन्द्र अभिषेक नृप
बांग्लादेश में हिंदू युवक दीपू चंद्र दास की नृशंस हत्या और उसके बाद भीड़ द्वारा सार्वजनिक रूप से उसके शव को जलाया जाना कोई साधारण आपराधिक घटना नहीं है। यह घटना बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर हिंदुओं की उस स्थायी असुरक्षा की भयावह तस्वीर पेश करती है, जो वर्षों से वहां मौजूद है। भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा इस घटना की कड़ी निंदा किया जाना और दोषियों को न्याय के कठघरे में लाने तथा सभी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर बल देना निस्संदेह सही कदम है। किंतु आज के हालात में केवल चिंता जताना या कूटनीतिक बयान देना पर्याप्त नहीं रह गया है। बांग्लादेशी हिंदुओं के खिलाफ जारी हिंसा की गंभीरता और निरंतरता यह स्पष्ट संकेत देती है कि अब ठोस कार्रवाई, निरंतर दबाव और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय हस्तक्षेप की आवश्यकता है, ताकि इस समुदाय का अस्तित्व और सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
दीपू चंद्र दास की हत्या में शामिल लोगों की गिरफ्तारी को प्रथम दृष्टया न्याय की दिशा में उठाया गया कदम माना जा सकता है, लेकिन इस कार्रवाई का समय कई गंभीर सवाल खड़े करता है। यह तथ्य अनदेखा नहीं किया जा सकता कि प्रशासन ने तब हरकत में आना उचित समझा, जब इस अमानवीय घटना के रोंगटे खड़े कर देने वाले वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गए और वैश्विक स्तर पर आक्रोश फैल गया। यह प्रतिक्रिया-आधारित न्याय व्यवस्था इस बात को उजागर करती है कि यहां कानून और नैतिकता के आधार पर नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय बदनामी के डर से कार्रवाई की जाती है। ऐसी विलंबित और दबाव में की गई कार्रवाई कट्टरपंथी तत्वों को और अधिक दुस्साहसी बनाती है तथा यह संदेश देती है कि यदि हिंसा को वैश्विक ध्यान न मिले तो वह दंड से बच सकती है।
बांग्लादेश में हिंदुओं को निशाना बनाए जाने की घटनाएं उस समय और तेज हो गईं, जब पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को सत्ता से हटाया गया और उन्होंने भारत में शरण ली। कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों ने इस घटनाक्रम का लाभ उठाकर भारत-विरोधी माहौल बनाने की कोशिश की और इसका सबसे आसान शिकार वहां के हिंदू बन गए। यह कोई नई रणनीति नहीं है। पूरे दक्षिण एशिया में यह देखा गया है कि जब भी भू-राजनीतिक तनाव बढ़ते हैं, तो अल्पसंख्यकों को बलि का बकरा बनाया जाता है। बांग्लादेश के हिंदू भी एक बार फिर उन परिस्थितियों की कीमत चुका रहे हैं, जिन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है।
इतिहास पर दृष्टि डालें तो बांग्लादेश में हिंदू आबादी में आई भारी गिरावट अपने आप में एक गहरी पीड़ा की कहानी कहती है। 1971 में जब बांग्लादेश अस्तित्व में आया, तब हिंदुओं की आबादी लगभग 15 से 16 प्रतिशत थी। आज यह आंकड़ा घटकर आठ प्रतिशत से भी कम रह गया है। इतनी बड़ी जनसांख्यिकीय गिरावट को प्राकृतिक जनसंख्या परिवर्तन कहकर टाला नहीं जा सकता। इसके पीछे दशकों से चला आ रहा भेदभाव, समय-समय पर भड़कने वाली हिंसा, जबरन विस्थापन, संपत्तियों पर कब्जा और निरंतर असुरक्षा की भावना जिम्मेदार है। यह स्थिति पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ हुए व्यवहार से मिलती-जुलती है, जहां व्यवस्थित उत्पीड़न के चलते वे लगभग सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो गए।
हिंदुओं का उत्पीड़न बांग्लादेश की स्वतंत्रता के बाद ही शुरू नहीं हुआ। पूर्वी पाकिस्तान के दौर में भी हिंदू समुदाय को व्यापक भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ा था, विशेषकर राजनीतिक उथल-पुथल के समय। 1971 में स्वतंत्रता के बाद समानता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय की जो उम्मीदें जगी थीं, वे बार-बार कट्टरपंथ के उभार के कारण कमजोर होती चली गईं। संविधान में समान अधिकारों की गारंटी होने के बावजूद व्यवहार में हिंदू समुदाय को अक्सर द्वितीय श्रेणी का नागरिक माना गया। चुनावों के समय, सामाजिक अशांति के दौर में या सत्ता परिवर्तन के दौरान वे विशेष रूप से हिंसा, भूमि हड़पने और लक्षित हमलों के शिकार बने।
वर्तमान में बांग्लादेश की अंतरिम सरकार बार-बार यह आश्वासन देती रही है कि वह हिंदुओं सहित सभी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। किंतु जमीनी हकीकत इन दावों से बिल्कुल उलट है। शेख हसीना की सत्ता से विदाई के बाद हिंदुओं पर हमले न केवल जारी रहे, बल्कि कई मामलों में और भी बढ़ गए। मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में अंतरिम सरकार के गठन के बाद भी हिंदुओं के खिलाफ हमले, मंदिरों में तोड़फोड़ और लक्षित हत्याओं की खबरें थमी नहीं हैं। सरकारी बयानों और वास्तविक स्थिति के बीच का यह अंतर जनता के विश्वास को कमजोर करता है और यह सवाल खड़ा करता है कि क्या सरकार वास्तव में कट्टरपंथी ताकतों पर नियंत्रण करने में सक्षम या इच्छुक है।
वर्तमान स्थिति का सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि कट्टरपंथी संगठनों को राजनीतिक संरक्षण मिलता दिखाई दे रहा है। जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठन, जो अपनी उग्र विचारधारा और भारत-विरोधी रुख के लिए जाने जाते हैं, आज राजनीतिक परिदृश्य में प्रभावशाली भूमिका निभा रहे हैं। अंतरिम सरकार को उनका समर्थन मिलना इस बात की ओर इशारा करता है कि राज्य की वैचारिक दिशा किस ओर जा रही है। जब ऐसे संगठनों को राजनीतिक वैधता मिलती है, तो अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा धीरे-धीरे सामान्य और स्वीकार्य बनती चली जाती है।
हिंदू मंदिरों को व्यवस्थित ढंग से निशाना बनाया जाना इस हिंसा के वैचारिक चरित्र को और स्पष्ट करता है। ये घटनाएं किसी आकस्मिक उपद्रव का परिणाम नहीं हैं, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों को मिटाने, भय का वातावरण बनाने और समुदाय को पलायन के लिए मजबूर करने की सुनियोजित कोशिशें हैं। बांग्लादेशी हिंदुओं के लिए मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि सामाजिक जीवन और सांस्कृतिक पहचान के केंद्र भी हैं। जब इन्हें नष्ट किया जाता है, तो यह स्पष्ट संदेश दिया जाता है कि हिंदुओं के लिए इस देश के भविष्य में कोई स्थान नहीं है।
भारत, जो बांग्लादेश का निकटतम पड़ोसी है और जिसके साथ उसके गहरे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सभ्यतागत संबंध हैं, इस स्थिति में मूकदर्शक नहीं बना रह सकता। कूटनीतिक संतुलन और संयम अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं, लेकिन अत्यधिक चुप्पी या केवल प्रतीकात्मक बयानबाजी को उदासीनता के रूप में देखा जा सकता है। भारत को अब शब्दों से आगे बढ़कर ऐसी सक्रिय रणनीति अपनानी होगी, जिसमें द्विपक्षीय दबाव के साथ-साथ बहुपक्षीय मंचों पर भी इस मुद्दे को मजबूती से उठाया जाए। बांग्लादेशी हिंदुओं की सुरक्षा कोई भावनात्मक या केवल धार्मिक प्रश्न नहीं है, बल्कि यह क्षेत्रीय स्थिरता, मानवाधिकार और नैतिक जिम्मेदारी का विषय है।
इस मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण समय की मांग है। भारत को संयुक्त राष्ट्र, वैश्विक मानवाधिकार संगठनों और प्रभावशाली लोकतांत्रिक देशों के साथ मिलकर बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हो रहे व्यवस्थित उत्पीड़न को उजागर करना चाहिए। यदि इस समस्या को मानवाधिकार उल्लंघन के व्यापक संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए, न कि केवल द्विपक्षीय या धार्मिक विवाद के रूप में, तो राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोपों को भी काफी हद तक निष्प्रभावी किया जा सकता है। वैश्विक निगरानी और दबाव बांग्लादेशी सरकार को उसके संवैधानिक दायित्वों का पालन करने के लिए मजबूर कर सकता है।
इसके साथ ही भारत को लगातार जारी उत्पीड़न के मानवीय परिणामों के लिए भी तैयार रहना होगा। बांग्लादेश से हिंदुओं का भारत की ओर पलायन सीमावर्ती राज्यों पर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दबाव डाल रहा है। पीड़ितों को शरण देना एक नैतिक दायित्व है, लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं हो सकता। दीर्घकालिक लक्ष्य यही होना चाहिए कि हिंदू अपने ही देश में सम्मान, सुरक्षा और गरिमा के साथ रह सकें, न कि भय के कारण अपना घर-बार छोड़ने को मजबूर हों।
बांग्लादेश की स्थिति इस बात की चेतावनी है कि जब कट्टरपंथ शासन और राजनीति में प्रवेश कर जाता है, तो उसके परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं। यदि इसे समय रहते नहीं रोका गया, तो बांग्लादेशी हिंदुओं की स्थिति भी पाकिस्तान के हिंदुओं जैसी हो सकती है- संख्या में नगण्य, प्रभाव से वंचित और निरंतर भय के साए में जीवन जीने को मजबूर। इस स्थिति को रोकने के लिए साहस, जवाबदेही और क्षेत्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं।
अब यह स्पष्ट है कि बांग्लादेशी हिंदुओं का संकट केवल आंतरिक मामला कहकर टाला नहीं जा सकता। यह एक मानवीय त्रासदी है, जो हमारी आंखों के सामने घटित हो रही है और तत्काल ध्यान तथा निर्णायक कार्रवाई की मांग करती है। दीपू चंद्र दास जैसे पीड़ितों के लिए न्याय केवल वायरल वीडियो के बाद की गई गिरफ्तारियों तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उन संरचनाओं को तोड़ने तक पहुंचना चाहिए, जो ऐसी हिंसा को जन्म देती हैं। भारत के लिए चुनौती यह है कि वह कूटनीति और दृढ़ता, संयम और संकल्प के बीच संतुलन बनाए। इस संकट से निपटने का तरीका ही यह तय करेगा कि क्षेत्र की नैतिक विश्वसनीयता और लाखों असहाय लोगों का भविष्य किस दिशा में जाएगा।






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