बुनियादी शिक्षा में वैज्ञानिक प्रयोगवाद
- संजीव ठाकुर
बुनियादी शिक्षा में प्रयोगवाद का अर्थ केवल पाठ्यपुस्तकों तक सीमित शिक्षा नहीं, बल्कि जीवन के अनुभवों, सामाजिक यथार्थ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित शिक्षा से है। आज का समय ज्ञान, मूल्य, तकनीक और मानवीयता के समन्वय का समय है, जहां बुनियादी और नैतिक शिक्षा किसी भी समाज, व्यक्ति और राष्ट्र के नैतिक, मानसिक व आर्थिक विकास की दिशा निर्धारित करती है।
किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी संपत्ति उसका शिक्षित, सुसंस्कृत और जागरूक नागरिक वर्ग होता है। जिस देश में शिक्षा जितनी गहरी, संस्कृति जितनी समृद्ध और प्रयोगवाद जितना सशक्त होता है, वह राष्ट्र उतना ही विकसित, पुष्पित और पल्लवित होता है। आज भारत में विद्यालयों में नामांकन दर 97% तक पहुंच चुकी है और नई शिक्षा नीति 2020 में प्रबुनियादी शिक्षा में वैज्ञानिक प्रयोगवाद राष्ट्र निर्माण की आधारशिला.योगात्मक शिक्षा, स्किल डेवलपमेंट तथा वैचारिक स्वतंत्रता पर विशेष बल दिया गया है, जो यह प्रमाणित करता है कि आधुनिक भारत शिक्षा को केवल नौकरी की अनिवार्यता नहीं बल्कि राष्ट्रनिर्माण की आधारशिला के रूप में देखता है। शिक्षा के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विश्लेषणात्मक चिंतन आज विश्व की सबसे बड़ी जरूरत है।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक विश्व की लगभग 40% नौकरियां उन कौशलों पर आधारित होंगी जो समस्या-समाधान, रचनात्मकता और नवाचार की क्षमता से संचालित होंगी। अतः प्रयोगवादी शिक्षा के बिना आधुनिक समाज की उन्नति संभव ही नहीं। हर राष्ट्र में ऐसे विचारशील, नैतिक, ईमानदार और राष्ट्रहित के प्रति समर्पित लोगों का समूह होना चाहिए, जो लोकतंत्र की आत्मा को नई ऊर्जा दे सकें, राष्ट्रहित के मूल मंत्र को दिशा दे सकें और जनसामान्य को यह बता सकें कि प्रगति का वास्तविक पथ विचारों की स्वतंत्रता, संस्कृति तथा नैतिकता के समन्वय से होकर गुजरता है। बिना संस्कृति, बिना संस्कार और बिना वैचारिक क्षमता के कोई समाज या राष्ट्र वैश्विक स्तर पर स्थाई विकास की कल्पना भी नहीं कर सकता। इतिहास साक्षी है कि सिद्धांत और वैचारिक धारा को कभी कुचला नहीं जा सकता। व्यक्ति मर सकता है, पर उसकी विचारधारा कालजयी बनकर सदियों तक जनमानस का मार्गदर्शन करती रहती है।
भारत के संदर्भ में वैचारिक स्वतंत्रता गणतंत्र की मूल आत्मा है। व्यक्ति का विचार उसकी अंतःप्रज्ञा है, और जब यही विचार किसी कारणवश दबा दिए जाते हैं तो यह दमन व्यक्ति की आत्मा को घायल करता है। इतिहास बताता है कि विचारों पर लगाया गया कोई भी प्रतिबंध जितना कठोर होता है, विचार उतनी ही तीव्रता से जनता के भीतर पुनर्जीवित होते हैं। यही कारण है कि दमनकारी शासन कभी स्थायी नहीं रह सका।
प्राचीन यूनान के सुकरात इसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं एक कुरूप किन्तु अत्यंत विद्वान व्यक्ति, जिसकी मौलिकता और सत्यपरक विचारधारा ने जनमानस को चकित कर दिया था। राजनीतिक सत्ता उनके विचारों से भयभीत थी, इसलिए उन्हें मृत्युदंड दे दिया गया; किन्तु विचार अमर हो गए और सुकरात एक शाश्वत प्रतीक बनकर आज भी जीवित हैं। अमेरिका में अब्राहम लिंकन का उदाहरण भी उतना ही सशक्त है। जब उन्होंने दासप्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई, तब तत्कालीन शासक वर्ग को यह एक क्रांति की आहट लगी, परिणामस्वरूप उनकी हत्या कर दी गई; पर लिंकन का विचार आज भी मानवता का आधार स्तंभ है और दासता के उन्मूलन का वैश्विक ऐतिहासिक प्रेरक। इसी प्रकार स्वामी विवेकानंद ने कहा था—“हम जो सोचते हैं वही बन जाते हैं।” विचार ही व्यक्ति का निर्माण करते हैं और वही उसे दुष्ट या महान बनाते हैं। विवेकानंद के विचार आज भी उतने ही शक्तिशाली हैं जितने उनके जीवनकाल में थे; उनका शरीर नष्ट हुआ पर उनके विचार आज भी समाज को प्रेरित करने की क्षमता रखतें है।
विचारों की यह अमरता किसी भी तानाशाह के लिए उतनी ही खतरनाक है, जितनी सुप्त सिंह की गुफा में प्रवेश करना। जब जनता के भीतर शुद्ध और सशक्त विचारधारा जागृत होती है, वहां क्रांति के जन्म को कोई रोक नहीं सकता चाहे वह फ्रांस की क्रांति हो, भारत का स्वतंत्रता संग्राम हो या आधुनिक युग में सामाजिक न्याय की कोई नई धारा हो। विचारों का प्रवाह जब एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचता है, तो उसका प्रभाव बहुगुणित होता जाता है। अकेले का विचार जब जनमानस तक पहुंचता है तो वह अकेला नहीं रहता, वह एक विचार-यात्री बन जाता है जिसके पीछे हजारों-लाखों कदम चलने लगते हैं। इसी सघनता से क्रांति जन्म लेती है और इतिहास का पुनर्लेखन होता है। परंतु नियंत्रणवादी समाजों में, जैसे चीन या उत्तर कोरिया, विचारों की स्वतंत्रता को सीमित कर दिया गया। वहां सत्ता ने अभिव्यक्ति के माध्यमों को बाधित किया, जिसके कारण वैचारिक विस्तार विद्वानों तक ही सीमित रह गया। यह केवल मानवाधिकारों का हनन नहीं बल्कि मानव सभ्यता की गति को रोकने का प्रयास है।
किसी स्वस्थ लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए विचारों की स्वतंत्रता, नवीनता और उत्कृष्टता अनिवार्य है। भारत जैसे राष्ट्र में इसका और भी बड़ा महत्व है क्योंकि यह विविधताओं का देश है। यहां 22 अनुसूचित भाषाएं, 121 से अधिक मातृभाषाएं, और हजारों सांस्कृतिक परंपराएं हैं; ऐसे देश में शिक्षा, विचार और संस्कृति का संतुलन ही राष्ट्र को वैश्विक स्तर पर अग्रणी बना सकता है।
भारत की जीडीपी में शिक्षा, विज्ञान और तकनीक का योगदान लगातार बढ़ रहा है, और आज भारत वैश्विक स्टार्ट-अप हब बन चुका है जहां 1,00,000 से अधिक स्टार्ट-अप और 112 यूनिकॉर्न सक्रिय हैं यह प्रयोगवादी शिक्षा की सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। निष्कर्षत विचार, सिद्धांत और प्रयोगवादी शिक्षा किसी भी राष्ट्र की रीढ़ हैं। व्यक्ति को दबाया जा सकता है, पर विचारों को नहीं; सत्ता सीमित हो सकती है, पर विचार असीमित होते हैं। यही विचार जब समाज में गति पाते हैं तो युगों का निर्माण करते हैं और व्यक्ति मृत्यु के बाद भी अमर हो जाता है। विचारों की यह अमरता ही मानव सभ्यता की सबसे बड़ी शक्ति है और यही भविष्य के भारत का आधार भी।
(लेखक, चिंतक, रायपुर, छ.ग.)





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