डिजिटल दौर में सिमटता बचपन
- हरिओम हंसराज
डिजिटल तकनीक ने आज मानव जीवन को तीव्र, सुविधायुक्त और आधुनिक बना दिया है, परंतु इसके बदले समाज एक अदृश्य क्षति भी झेल रहा है,बचपन का धीरे-धीरे खो जाना। हाल ही में राज्यसभा में सांसद और लेखिका सुधा मूर्ति ने बच्चों के बढ़ते स्क्रीन-टाइम पर चिंता व्यक्त की। उनका कहना था कि डिजिटल प्लेटफॉर्म की अधिकता बच्चों की कल्पनाशक्ति, सामाजिकता और भावनात्मक विकास पर नकारात्मक असर डाल रही है। उनका यह बयान समाज के लिए एक चेतावनी है कि यदि अभी नहीं जागे, तो आने वाली पीढ़ी भावनाओं की जगह एल्गोरिद्म के साये में पलेगी।
पिछले एक दशक में बच्चों की डिजिटल पहुँच कई गुना बढ़ी है। एनसीआरबी और कई निजी सर्वेक्षणों के अनुसार 8 से 16 वर्ष के बच्चों में प्रतिदिन औसतन 3 से 5 घंटे स्क्रीन टाइम दर्ज किया गया है। वहीं, डब्लूएचओ ने बच्चों के लिए अधिकतम 1 से 2 घंटे का स्क्रीन टाइम सुरक्षित बताया है। इस अंतर ने विशेषज्ञों को चिंतित किया है। पहले जहां बच्चे मैदानों में दौड़ते, पेड़ों पर चढ़ते और दोस्तों संग खेलते थे, आज उनका अधिक समय मोबाइल गेम्स, शॉर्ट वीडियो और सोशल मीडिया में बीतता है। बचपन की यही प्राकृतिक गतिविधियाँ डिजिटल दुनिया में सिमटती जा रही हैं।
मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट बताते हैं कि लगातार स्क्रीन देखने से बच्चे के दिमाग में डोपामिन का असंतुलन बढ़ता है, जिससे चिड़चिड़ापन, एकाग्रता में कमी और तत्काल आनंद की प्रवृत्ति बढ़ती है। एम्स दिल्ली की एक रिसर्च के अनुसार अत्यधिक स्क्रीन टाइम वाले बच्चों में ध्यान की समस्या और नींद सम्बन्धी दिक्कतें 40 प्रतिशत तक अधिक पाई गईं। इसके अलावा, बच्चों में आंखों की कमजोरी, सिरदर्द और गर्दन दर्द के मामले भी तेजी से बढ़े हैं। ये समस्याएँ न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ती हैं।
डिजिटल प्लेटफॉर्म बच्चों की सोच और सामाजिक व्यवहार भी बदल रहे हैं। यूनिसेफ की 2023 रिपोर्ट के अनुसार, जो बच्चे प्रतिदिन दो घंटे से अधिक सोशल मीडिया या वीडियो प्लेटफॉर्म पर रहते हैं, उनमें आत्म-संदेह और तुलना की भावना अधिक देखी जाती है। आभासी दुनिया में मिलने वाली “लाइक”, “कमेंट” और “फॉलोअर्स” जैसी चीजें बच्चों के मन में अस्थिरता और असुरक्षा पैदा करती हैं। इससे वे वास्तविक जीवन के रिश्तों, बातचीत और खेल-कूद से दूर होते जाते हैं।
सुधा मूर्ति ने अपने वक्तव्य में कहा था कि तकनीक ज्ञान का साधन है, लेकिन अनियंत्रित उपयोग बच्चों की मासूमियत को निगल सकता है। सच भी यही है,डिजिटल तकनीक शिक्षा और जानकारी का एक सशक्त माध्यम है, परंतु इसके अत्यधिक उपयोग से बच्चे खुद को “डिजिटल बबल” में बंद कर लेते हैं। कई अध्ययनों में यह भी सामने आया है कि जो बच्चे ऑनलाइन गेम्स में अधिक समय बिताते हैं, उनमें हिंसक या आक्रामक प्रवृत्तियाँ 20-25 प्रतिशत तक बढ़ जाती हैं। यह प्रवृत्ति किशोरावस्था में और खतरनाक रूप ले सकती है।
शिक्षा प्रणाली भी इस बदलाव से अछूती नहीं है। ऑनलाइन क्लासेज की शुरुआत ने बच्चों को डिजिटल उपकरणों से और अधिक जोड़ा। एक रिपोर्ट के अनुसार, कोविड-19 के बाद बच्चों का औसत स्क्रीन टाइम 60 प्रतिशत बढ़ गया, जो आज तक कम नहीं हो पाया है। स्कूलों में भले ही डिजिटल लर्निंग को बढ़ावा दिया जा रहा हो, परंतु आउटडोर गतिविधियों, पारंपरिक खेलों और समूह कार्यों में कमी बच्चों के समग्र विकास में बाधा बन रही है।
ऐसे समय में बच्चों को डिजिटल निर्भरता से बचाने के लिए परिवार, विद्यालय और समाज को सामूहिक प्रयास करने होंगे। परिवार में स्क्रीन-टाइम के लिए स्पष्ट नियम बनाए जाएँ और उनका पालन माता-पिता स्वयं करें, क्योंकि बच्चे वही सीखते हैं जो वे देखते हैं। बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताना, उनके साथ खेलना, कहानी सुनाना, किताबें पढ़ने की आदत डालना और उन्हें प्रकृति के करीब ले जाना डिजिटल नशे से बचाने के सशक्त उपाय हैं।
डिजिटल दौर हमारी प्रगति का हिस्सा है, परंतु बचपन इसकी कीमत बन जाए,यह स्वीकार नहीं किया जा सकता। सुधा मूर्ति की चेतावनी हमें याद दिलाती है कि बचपन की प्राकृतिक स्वतंत्रता, कल्पना और सामाजिकता किसी भी तकनीक से अधिक महत्वपूर्ण है। यदि हम आज सजग होकर कदम न उठाएँ, तो आने वाली पीढ़ी भावनात्मक रूप से कमजोर, सामाजिक रूप से अलग-थलग और मानसिक रूप से निर्भर बन सकती है। इसलिए डिजिटल अनुशासन और डिजिटल संतुलन दोनों समय की सबसे बड़ी आवश्यकता हैं।





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