एआई: मानवीय विवेक को चुनौती का सवाल


- संजीव ठाकुर
आज विज्ञान ने जिस तीव्रता से अपने पंख फैलाए हैं, वह मानव सभ्यता के इतिहास में अप्रत्याशित है। अब जब पृथ्वी डिजिटल युग से आगे बढ़कर कृत्रिम बुद्धिमत्ता  के युग में प्रवेश कर रही है, तब यह प्रश्न और भी प्रासंगिक हो गया है कि क्या आने वाला समय मानव मस्तिष्क की विजय का प्रतीक होगा या उसकी अधीनता का प्रारंभ?
भारत इस प्रश्न का उत्तर अपने कार्यों से दे रहा है। सीमित संसाधनों और न्यूनतम वित्तीय निवेश के बावजूद, भारत ने एआई तकनीक के क्षेत्र में जो प्रगति की है, वह अद्भुत है। यही कारण है कि ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स के स्पीकर लिंडसे हॉयल ने भारत की संसदीय व्यवस्था की सराहना करते हुए कहा कि ब्रिटेन भी भारतीय संसद की तरह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का अनुकरण कर अपने संसदीय कार्य को और सशक्त बना सकता है। भारत की संसद में एक साथ 23 भाषाओं का अनुवाद संभव होना, इस तकनीक की उपयोगिता का जीवंत उदाहरण है।

           यह उपलब्धि केवल तकनीकी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक भी है यह भारत की उस बहुभाषी आत्मा का सजीव चित्रण है जो एकता में विविधता का साक्षात् दर्शन कराती है। कम बजट में इतनी विशाल तकनीकी क्षमता विकसित करना यह सिद्ध करता है कि भारत की नवाचार चेतना विश्व के लिए आदर्श बन रही है। परंतु, प्रत्येक आविष्कार के साथ उसकी छाया भी जन्म लेती है। एआई जहाँ मानव जीवन को सरल, त्वरित और कुशल बना सकता है, वहीं यह उसकी निजता और स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा खतरा भी बन सकता है। जब मशीनें हमारी नब्ज़ पढ़ने लगेंगी, जब हमारी धड़कनों से हमारे विचारों का अनुमान लगा सकेंगी — तब यह तय करना कठिन होगा कि विचार हमारे हैं या तकनीक के संकेतों से संचालित।



      विकसित देश अमेरिका, रूस, चीन, जापान और यूरोप इस तकनीक का उपयोग सामरिक और रणनीतिक स्तर पर कर रहे हैं। रूस-यूक्रेन, इसराइल हमास, भारत पाकिस्तान युद्ध इसका साक्षी है, जहाँ एआई के सहारे मिसाइलें दागी जा रही हैं, दुश्मन की गतिविधियों का रियल-टाइम विश्लेषण हो रहा है, और डेटा अब बारूद से भी अधिक खतरनाक हथियार बन चुका है। ऐसे में विकासशील देशों के लिए अपनी रक्षा-सूचना सुरक्षित रखना दिन-प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है।
एआई तकनीक के विकास ने खाड़ी देशों को भी नए मार्ग दिखाए हैं। जो देश कभी केवल तेल के कुएं पर निर्भर थे, अब अपनी अर्थव्यवस्था को कृत्रिम बुद्धिमत्ता के सहारे विविध दिशाओं में फैला रहे हैं। संयुक्त अरब अमीरात ने वर्ष 2017 में इस तकनीक को सरकारी स्तर पर अपनाया था, और आज सऊदी अरब, कतर, मिस्र, जॉर्डन और मोरक्को जैसे देश अपने बजट का 30% से अधिक हिस्सा एआई विकास पर निवेश कर रहे हैं।
वे यह समझ चुके हैं कि भविष्य की समृद्धि केवल पेट्रोलियम भंडारों से नहीं, बल्कि डेटा और एल्गोरिथ्म के नियंत्रण से तय होगी।
            भारत के लिए यह अवसर भी है और चुनौती भी। अवसर इसलिए कि हम ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था के अग्रदूत बन सकते हैं; और चुनौती इसलिए कि यदि हम सतर्क न रहें, तो यही तकनीक हमारे सामाजिक ढाँचे को, हमारी निजता को, और हमारी सांस्कृतिक पहचान को प्रभावित कर सकती है।एआई अब मानव मस्तिष्क का दर्पण नहीं, बल्कि उसका पर्यवेक्षक बनता जा रहा है। यह केवल हमारी बोली नहीं समझता, बल्कि हमारी भावनाओं और प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने में सक्षम हो चुका है। पल्स रीडिंग, न्यूरल सिग्नल डिटेक्शन, और थम्ब इंप्रेशन से विचार पढ़ना — ये सब विज्ञान कथा नहीं, बल्कि आज की वास्तविकता है।
          अमेरिका और यूरोप में चिकित्सा क्षेत्र में एआई का उपयोग अद्भुत परिणाम दे रहा है। रोगों का निदान सेकंडों में हो रहा है, सर्जरी की सटीकता बढ़ी है, और दवाइयों के परीक्षण की गति में कई गुना वृद्धि हुई है। परंतु वही तकनीक यदि डेटा नियंत्रण के गलत हाथों में चली जाए, तो वह मानवता के लिए सर्वाधिक घातक सिद्ध हो सकती है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक वरदान है, यदि वह मानव के विवेक के अधीन रहे।पर यदि मानव स्वयं मशीनों के निर्देशों पर चलने लगे, तो यही वरदान अभिशाप बन सकता है।दुनिया के अनेक राइट एक्टिविस्ट पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि एआई केवल रोजगार छीनने या औद्योगिक ढांचे को बदलने का उपकरण नहीं है — यह मानव चेतना को नियंत्रित करने की क्षमता रखता है। उनके अनुसार, यदि डेटा सुरक्षा और निजता की स्पष्ट कानूनी सीमाएँ न बनाई गईं, तो एक दिन रोबोट ही नीति निर्माता और मानव उसके अनुयायी बन जाएंगे।

खाड़ी देशों ने इस खतरे को समझते हुए एआई उपयोग पर नैतिक दिशा-निर्देश जारी किए हैं। भले ही वे कानूनी रूप से बाध्यकारी न हों, पर यह एक सकारात्मक पहल है। भारत को भी इस दिशा में आगे बढ़कर न केवल अपने नागरिकों की डेटा-संप्रभुता सुरक्षित रखनी होगी, बल्कि तकनीक के प्रयोग में मानवता के तत्व को सर्वोपरि रखना होगा। एआई की सबसे बड़ी सुंदरता यह है कि वह सोचने में मदद करता है; और सबसे बड़ा भय यह है कि वह सोचना सिखाकर सोचने की स्वतंत्रता छीन सकता है।
इसलिए आवश्यक है कि हम तकनीक को अपना सहचर बनाएं, स्वामी नहीं।
वर्तमान मानवता का सबसे बड़ा दायित्व यही है कि वह विज्ञान को अपनी नैतिकता से जोड़े।क्योंकि यदि तकनीक बुद्धि है, तो विवेक उसकी आत्मा।और बिना आत्मा की बुद्धि केवल विनाश का औजार होती है।


             भारत, जिसने शून्य का आविष्कार किया था, अब कृत्रिम बुद्धिमत्ता के युग में भी शून्य से सबकुछ रचने की क्षमता रखता है। पर हमें यह स्मरण रखना होगा कि विज्ञान जितना बाहरी जगत को बदलता है, उतना ही भीतर के मानव को भी प्रभावित करता है।भविष्य केवल एआई पर निर्भर नहीं होगा वह मानव विवेक पर निर्भर होगा कि वह उसे किस दिशा में ले जाता है। इसलिए समय की पुकार यही है कि एआई के युग में इंसान बने रहना सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है।
(स्तंभकार, चिंतक, रायपुर छत्तीसगढ़)

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