बढ़ती सामाजिक विकृतियां और समाधान
- प्रो. नंदलाल
अखबारों में, गोष्ठियों में, विचार विमर्शों में यहां तक कि छोटे छोटे समूहों में चर्चा के दौरान यह बात प्रमुखता से उठाई जाती है और चिंता व्यक्त की जाती है कि हमारा समाज और हमारी संस्कृति का तेजी से क्षरण हो रहा है और समाज में नई नई विकृतियां जन्म ले रही हैं। समाज का अवमूल्यन हो रहा है तथा हमारे संस्कार अधोगति को प्राप्त हो रहे हैं।यह बात झूठी नहीं है। अखबारों में प्रायः पढ़ने को मिलती हैं। गोष्ठियों में देश के मूर्धन्य विद्वान भी अपनी चिंताएं प्रकट करते हैं। पर समाधान कोई नहीं बताता कि आखिर में इसका निदान क्या है।
सिर्फ चिंता व्यक्त करने से समाधान तो होना नहीं है या फिर यह मान लें कि ये चिंताएं बकवास हैं। हम आगे जा रहे हैं और लोग दकियानूसी बातें कर रहे हैं।हमें सर्वप्रथम तो यह मानना होगा और स्वीकार करना होगा कि वास्तव में समाज विकृति की तरफ बढ़ रहा है। और इसकी स्वीकार्यता के पैमाने को भी समझना होगा कि कौन लोग इसे मान रहे हैं और कौन लोग इसे विकास का मार्ग स्वीकार कर रहे हैं। क्योंकि बहुत से ऐसे समाजशास्त्री इस देश में हुए हैं जो संयुक्त परिवार को विकास में अवरोध मानते हैं।वे एकल परिवार के पक्षधर हैं। यहां उनका नाम लेना उचित नहीं होगा पर यह बात शत प्रतिशत सत्य है।
एकल परिवार में वृद्धि ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है।एकल परिवार का मुखिया आज विरोधाभासों में घिरा हुआ है।उस विरोधाभास को समझना जरूरी है। एक तरफ वह अपने पत्नी के नियंत्रण में है और दूसरी तरफ बच्चों की अनावश्यक मांगों को पूर्ण करना जो अगल बगल, आस पड़ोस, मित्र मंडली के सामाजिक सरोकार और प्रतिष्ठा का सवाल होता है,के गर्भ से उपजी होती है। और तीसरी बात धीरे धीरे जड़ से कट जाने और अपने भाई भतीजों, माता पिता से जुड़े रहने की इच्छा यह सब मिलकर एक अन्तर्विरोधी दबाव उस व्यक्ति के ऊपर डालते हैं जिससे एक तरफ ग्राहय और दूसरी तरफ त्याज्य का अंतर्द्वंद्व पैदा होता है।परिणाम यह होता है कि एक तरफ तो उसके बच्चे नए नए सामाजिक मूल्यों को सीख लेते हैं जो अन्य बच्चों से सीखे रहते हैं तो स्वार्थ के चलते वह अपने मूल परिवार में अकेला हो जाता है।यह आज के एकल परिवारों की समस्याएं हैं।यदि बच्चे संयुक्त परिवार में रहते हैं तो उन पर सभी की दृष्टि रहती है और उनका लालन पालन भी सामूहिकता में होता है और धीरे धीरे वह समाजीकरण सीख लेते हैं पर ऐसा हो नहीं रहा और बच्चे एवं अभिभावक गलत रास्ते पर अनचाहे चलने लगते हैं।इसका समाधान क्या है।क्या पुनः संयुक्त परिवार की वापसी समाधान है।अब यह कैसे संभव है कि हम एकल परिवार की इतनी लंबी यात्रा करके पुनः पीछे लौटें।हां, यह संभव है।
यह स्थिति तो परिवार स्तर पर है पर जब हम समाज में प्रवेश करते हैं तो चतुर्दिक सूचनाएं हमारे सिर पर नाचती रहती हैं और चाहे अनचाहे हम उसे ग्रहण करते रहते हैं।तीसरी स्थिति विकास के नाम पर सरकारी प्रयासों से निर्मित होती है जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी के नाम पर हमारे सामने मौजूद है।सूचना प्रौद्योगिकी ,फिल्में और विज्ञापन ये सभी युवाओं के बौद्धिक तंत्र में पहुंचती हैं और उन्हें गलत रास्ते चुनने में सहायक होती हैं।अपरिपक्व मस्तिष्क सही गलत का चुनाव नहीं कर पाता और वे सही रास्ते से भटक जाते हैं।
अब देखिए एक तरफ बच्चों,किशोरों का भटकाव और दूसरी तरफ अभिभावकों में अंतर्द्वंद्व और इसी विकृत स्थिति में युवाओं का संस्कृति और समाज से अलग समाजविरोधी कृत्य ये सभी मिलकर सामाजिक समस्या उत्पन्न करते हैं और परिणाम बलात्कार,अपराध,झगड़े,धार्मिक असहिष्णुता,सांप्रदायिकता और पारिवारिक विघटन के रूप में प्रकट होते हैं।समाधान एक ही है, समाज में मूल्यों की पुनः स्थापना और स्वार्थ की जगह त्याग।यह कैसे होगा।
यह होगा पारिवारिक स्तर पर त्याग और अपनों से जुड़ाव तथा सरकार के स्तर पर शिक्षा में मूल्यपरक ज्ञान और गुणवत्ता को बढ़ाना।प्राथमिक कक्षाओं से लेकर उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रमों में भारतीय ज्ञान परंपरा को जोड़कर जिसमें गीता,रामायण,रामचरित मानस,उपनिषदों को कहानियों के रूप में पाठ्यक्रमों में जोड़कर,वेदों और पुराणों को सरल भाषा में प्रस्तुत करके तथा इंटरनेट पर परोसे जाने वाले व्यक्तित्व निर्माण विरोधी विज्ञापनों और गलत तरीके से प्रस्तुत किए जा रहे पारिवारिक विघटन संबंधी सीरियल्स पर बैन लगाकर ,राजनैतिक स्तर पर नेताओं के समाज विरोधी कृत्यों पर बैन लगाकर,भारतीय समाज की रक्षा की जा सकती है।नेताओं के कृत्य जो धर्म, जाति,मजहब,क्षेत्रवाद,भाषावाद के नाम पर जहर परोसे जा रहे हैं उन्हें प्रतिबंधित करके समाज और संस्कृति की रक्षा की जा सकती है।दृढ़ संकल्प की जरूरत है।वरना समाज छिन्न भिन्न होता रहेगा,भाषणबाजियां होती रहेंगी और हम विघटित होते रहेंगे।
(महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय, विश्वविद्यालय,चित्रकूट, सतना मप्र)





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