संवाद की जरूरत
राजीव त्यागी
विषम स्थितियां व जलवायु परिवर्तन के कारकों के चलते रोजगार के सिमटते अवसरों ने नई पीढ़ी को हताश किया है। इसके बावजूद युवा पीढ़ी उस सोशल मीडिया में लिप्त रही, जिसका जीवन की ठोस वास्तविकताओं से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे में यथार्थ से जूझते वक्त युवाओं का हताश व निराश होना स्वाभाविक है। कालांतर में उनका आत्मविश्वास भी प्रभावित हुआ। कुछ देशों ने सोशल मीडिया के नियमन की कोशिश की भी, लेकिन प्रयास सिरे न चढ़ सके। ऐसे में सरकारों को स्क्रीन समय के नियमन के साथ ही सोशल मीडिया का बेहतर उपयोग शिक्षा तथा रचनात्मक संवाद बढ़ाने के लिये करने की जरूरत है।
अपने हालिया अध्ययन में यूरोपीय आयोग ने चिंता जतायी है कि सोशल मीडिया पर अतिसक्रियता से युवा पीढ़ी तनाव व थकान से जूझ रही है। इस संकट को लेकर भारतीय समाजविज्ञानी, चिकित्सक व मीडिया भी लंबे समय से चेतावनी देता रहा है। अब जब यूरोपीय आयोग जेनरेशन जेड को लेकर अपने निष्कर्ष सामने ला रहा है तो भारत में नये सिरे से उसकी चर्चा होने लगी है। विडंबना यह है कि पिछली सदी के अंतिम वर्षों से लेकर इस सदी के पहले दशक में पैदा हुए बच्चों की यह पहली पीढ़ी है, जिसे कम उम्र में ही सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों से रूबरू होने का मौका मिल गया था।
यह पीढ़ी पारंपरिक मानकों को चुनौती देकर अपना नया आकाश तलाशने की जद्दोजहद में जुटी रही है। इस पीढ़ी ने परंपरागत जीवन मूल्यों को तिलांजलि देकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को अंजाम दिया। साथ ही नये नजरिये की जीवनशैली का अंगीकार किया। यह पीढ़ी डिजिटल युग के साथ कदमताल करती नजर आई। इंटरनेट के विस्तार के साथ वह सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्मों के साथ सहज दिखी। लेकिन काल्पनिक धरातल पर उगा सोशल मीडिया इस पीढ़ी को यथार्थ से बहुत दूर ले गया।
फलत: कठोर यथार्थ से जूझते हुए यह पीढ़ी कल्पना व वास्तविकता के द्वंद्व के चलते तनाव व असहजता के भंवर में जा फंसी। इस बात की पुष्टि यूरोपीय आयोग का अध्ययन भी करता है। आयोग कहता है कि लगातार सोशल मीडिया में सक्रियता के चलते युवाओं में चिंता, मानसिक थकान, कुछ खोने का भय व मोबाइल में चिपके रहने की विसंगतियां सामने आई हैं। नई पीढ़ी को इस तनाव से निकालने की जरूरत है। इसके लिए उनके साथ सकारात्मक संवाद करने की जरूरत है।
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