संसद में गतिरोध
इलमा अज़ीम
अगर भारत को अपने लोकतंत्र को मजबूत करना है, तो सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को मिलकर संसद की कार्यवाही को सुचारू बनाने और जनहित में काम करने की दिशा में कदम उठाने होंगे। केवल सहयोग और सार्थक विमर्श के माध्यम से ही संसद अपनी वास्तविक भूमिका निभा और जनता का विश्वास जीत सकती है। हालांकि, हाल के वर्षों में संसद के सत्रों में विपक्ष के हंगामे और व्यवधानों की घटनाएं बढ़ी हैं, जिसके परिणामस्वरूप संसद की कार्यवाही बार-बार बाधित हुई है। इन व्यवधानों का न केवल संसदीय कार्यवाही बल्कि देश की अर्थव्यवस्था और लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भी गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। विपक्षी दलों द्वारा संसद में हंगामा करना कोई नई बात नहीं है।
यह अक्सर सरकार की नीतियों, विधेयकों या किसी विवादास्पद मुद्दे पर असहमति जताने का एक तरीका होता है। ये व्यवधान न केवल समय की ही बर्बादी करते हैं, बल्कि संसद की गरिमा और कार्यकुशलता को भी प्रभावित करते हैं। विपक्षी सांसदों द्वारा सभापति के आसन के समीप नारेबाजी, तख्तियां लहराना और कार्यवाही में बाधा डालना आम बात हो गई है। 2023 के शीतकालीन सत्र में, सुरक्षा चूक के मुद्दे पर विपक्ष के हंगामे के कारण 146 सांसदों को निलंबित किया गया, जो संसद के इतिहास में एक अभूतपूर्व कदम था। संसद की कार्यवाही में व्यवधान का सबसे प्रत्यक्ष प्रभाव वित्तीय नुकसान के रूप में सामने आता है।
संसद को चलाने की लागत बहुत अधिक है, जिसमें सांसदों के वेतन, भत्ते, सुरक्षा व्यवस्था, कर्मचारियों का खर्च और अन्य प्रशासनिक लागत शामिल हैं। एक अनुमान के अनुसार, संसद को चलाने की प्रति मिनट लागत लगभग 2.5 लाख रुपये है, जो प्रति घंटे 1.5 करोड़ रुपये के बराबर है। वर्ष 2025 के मॉनसून सत्र में, राज्यसभा के उपसभापति के अनुसार, विपक्ष के हंगामे के कारण 51.3 घंटे की कार्यवाही बर्बाद हुई, जिसका अनुमानित वित्तीय नुकसान 76 करोड़ रुपये से अधिक है। यह राशि करदाताओं से आती है, और इसका दुरुपयोग न केवल आर्थिक नुकसान है, बल्कि जनता के प्रति जवाबदेही की कमी को भी दर्शाता है।
वित्तीय नुकसान के अलावा, संसद में हंगामे का सबसे गंभीर प्रभाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर पड़ता है। संसद का प्राथमिक उद्देश्य जनता के मुद्दों पर सार्थक चर्चा करना और कानून बनाना है। व्यवधानों के कारण महत्वपूर्ण विधेयक, जैसे वक्फ संशोधन विधेयक या इनकम टैक्स बिल, बिना उचित चर्चा के स्थगित हो जाते हैं या जल्दबाजी में पारित कर दिए जाते हैं। इससे न केवल नीतियों की गुणवत्ता प्रभावित होती है, बल्कि जनता के हितों की भी उपेक्षा होती है। हंगामे के कारण संसद में बहस की गुणवत्ता में भी कमी आई है।
सांसदों का ध्यान विधायी चर्चा के बजाय मीडिया में सुर्खियां बटोरने और टकराव पर केंद्रित हो गया है। इसके परिणामस्वरूप, नागरिकों की प्रमुख चिंताएं, जैसे बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण, संसद में प्रभावी ढंग से उठाई नहीं जातीं। यह स्थिति संसद के प्रति जनता के विश्वास को कमजोर करती है और लोकतंत्र की नींव को कमजोर करती है।
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