किशोर मानसिक स्वास्थ्य
राजीव त्यागी
आज युवाओं द्वारा आत्महत्या करने की सूचना आम होती जा रही है। अवसाद और आत्मघात की भावना का विस्तार किस हद तक हो चुका है, इसका अनुमान लगा पाना भी अब संभव नहीं लगता। भोपाल में दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली 9 साल की बच्ची ने केवल इसलिए फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली क्योंकि वह पालतू खरगोश को छत से कमरे में लाना चाहती थी और उसकी मां ने उसे ऐसा नहीं करने दिया। नई सामाजिक-आर्थिक पारिस्थिति में बच्चों के मनोविज्ञान को समझने में हमारी सरकारें और समाज दोनों नाकाम रहे हैं।
हम सैद्धांतिक रूप से तो यह तर्क देते हैं कि बच्चों के साथ संवाद होना चाहिए, उन्हें अपनी बात कहने का पूरा अवसर मिलना चाहिए किन्तु जिस तरह का आर्थिक विकास का ताना-बाना हमने अपनाया है, उसके कारण यदि परिवार में बच्चों के माता-पिता के सामने रोजगार, कर्ज या विस्थापन का संकट सदैव मौजूद है, अनुसूचित जाति के व्यक्तियों के साथ छुआछूत हो रही है, लैंगिक प्रताड़ना जारी है, तो जरा सोचिये कि परिवार में कोई भी सदस्य बच्चों के साथ हमेशा 'सहज और सहभागितापूर्ण' व्यवहार कैसे कर सकता है? जिस तरह की शिक्षा व्यवस्था को भारत ने अपनाया है, उसका स्वाभाविक परिणाम बच्चों में हिंसा और कटु-प्रतिस्पर्धा की भावना के विकास के रूप में सामने ही आएगा। भारत में आज बच्चों और किशोरवय समूह के मानसिक स्वास्थ्य पर सघन पहल करने की जरूरत है।
इस समूह के मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए बेहद सीमित प्रयास हो रहे हैं। वर्ष 1937 में पहला बाल मार्गदर्शन क्लीनिक खोला गया था। इसके बाद वर्ष 1940 के आसपास भारतीय मानसिक आरोग्य परिषद की स्थापना हुई। वर्ष 1980 तक भारत में 120 बाल मार्गदर्शन क्लीनिक संचालित हो रहे थे। इसके बाद भारत में बच्चों के स्वास्थ्य-पोषण और व्यापक अधिकारों के लिए नीतिगत पहल होती रही, किन्तु मानसिक स्वास्थ्य की व्यापकता को भारत की सरकारें महसूस ही नहीं कर पायीं। वर्ष 1974 में राष्ट्रीय बाल नीति लाई गयी थी, इसके बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986, श्रम नीति (1987), राष्ट्रीय पोषण नीति (1993), विभिन्न मनोरोगों - आटिज्म, सेरेब्रल पालसी, मानसिक विक्षिप्तता और बहु विकलांगता से प्रभावित लोगों के कल्याण के लिए ट्रस्ट अधिनियम (1999), बच्चों के लिए चार्टर (2005), बच्चों के लिए राष्ट्रीय कार्ययोजना (2005) लागू किये गए; किन्तु इनमें से किसी में भी बच्चों और किशोरवय समूह के मानसिक स्वास्थ्य के लिए कोई भी कार्ययोजना और प्रतिबद्धता मौजूद नहीं थी।
किशोरवय समूह के मानसिक स्वास्थ्य को वर्ष 2014 में लागू हुए राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम में शामिल छह मुख्य रणनीतियों में शामिल किया गया. इसके साथ ही स्कूल स्वास्थ्य कार्यक्रम में भी इसे स्थान देने की पहल हुई, लेकिन जमीन और क्रियान्वयन के स्तर पर यह नजर आता है कि बच्चों और किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए जिस तरह की व्यवस्था की जरूरत है, वह मौजूद नहीं है। सभी स्कूलों और महाविद्यालयों में शिक्षकों को बाल और किशोर मनोविज्ञान का बुनियादी वैज्ञानिक प्रशिक्षण दिया जा सकता है ताकि वे मनोरोगों और व्यक्तित्व विकार के लक्षणों को पहचान सकें और परामर्श की सेवाएं प्रदान कर सकें।
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