- नृपेन्द्र अभिषेक नृप
सभ्यता के क्रमिक विकास की राह पर जब कोई समाज आगे बढ़ता है, तो उसकी गति और दिशा केवल भौतिक समृद्धि से नहीं, बल्कि उसके नैतिक-बौद्धिक विवेक और मूल्यों की परिपक्वता से भी निर्धारित होती है। किंतु जब यह प्रगतिशीलता केवल बाह्य आवरण बनकर रह जाती है और भीतर से समाज अपनी रूढ़ियों, पूर्वग्रहों और जड़ मानसिकताओं से चिपका रहता है, तब यह जड़ता केवल एक सामाजिक बाधा नहीं, बल्कि हिंसात्मक प्रवृत्तियों की जन्मदात्री बन जाती है। गुरुग्राम की घटना कोई आकाशीय अवधारणा नहीं, बल्कि हमारी आंखों के सामने प्रतिदिन घट रही वह त्रासदी है, जिसमें अंध परंपरा, अहंकार और विकृत पितृसत्तात्मक सोच मिलकर किसी जीवन की लौ बुझा देती है।
विकासमान समाज की पहचान यह है कि वह बदलते समय के साथ अपने भीतर की मान्यताओं को पुनः परिभाषित करने का साहस रखता है। किंतु विडंबना यह है कि जब भी कोई नई पीढ़ी अपनी चेतना और क्षमताओं के सहारे परंपरा से भिन्न राह बनाने का प्रयास करती है, तो एक अघोषित दीवार उसके सामने खड़ी कर दी जाती है। यह दीवार केवल भौतिक नहीं होती बल्कि यह सामाजिक संस्कारों, मान-संस्कृति और पीढ़ियों से सुदृढ़ की गई पितृसत्ता की दीवार होती है, जो न केवल स्त्रियों की स्वतंत्रता को बाधित करती है, बल्कि संपूर्ण समाज के नैतिक स्वरूप को विकृत कर देती है।
हाल ही में गुड़गांव की एक बालिका के साथ घटित हुई घटना इस जड़ता की हिंसा का एक निर्मम उदाहरण है। एक होनहार बेटी, जो राज्य स्तरीय टेनिस खिलाड़ी थी, उसे उसके पिता ने इसलिए गोली मार दी क्योंकि वह उसके अभ्यास के लिए रात में घर लौटती थी, और यह उसके 'संस्कारों' के प्रतिकूल था। यह अपराध किसी क्षणिक आवेग में किया गया कृत्य नहीं था, बल्कि यह उस सामाजिक मानसिकता का सघन प्रतीक है, जिसमें स्त्री की स्वतंत्रता को पाप, और उसकी प्रगति को विद्रोह मान लिया जाता है। उस पिता का क्रोध, जो समाज में अपनी 'इज्जत' के मापदंड से जुड़ा था, अंततः इतनी क्रूरता में परिवर्तित हुआ कि उसने अपनी ही बेटी की जीवन-रेखा को समाप्त कर दिया।
यह प्रश्न उठता है कि क्या यह मात्र एक पारिवारिक विफलता थी? कदापि नहीं। यह संपूर्ण समाज की सांस्कृतिक संरचना पर चोट करता हुआ प्रसंग है, जो यह दर्शाता है कि आधुनिकता के आवरण में ढँके हमारे सामाजिक ताने-बाने अब भी कहीं न कहीं मध्ययुगीन मानसिकता से पोषित हैं। पितृसत्ता यहाँ केवल एक लैंगिक असमानता नहीं, बल्कि एक दंभी अहंकार है, जो बेटी की सफलता को पिता की पराजय समझ बैठता है। ऐसी सोच में स्त्री की अस्मिता, उसकी प्रतिभा और उसकी मेहनत सब कुछ गौण हो जाते हैं, और जो प्रमुख होता है वह है- 'घर की मर्यादा', 'जाति की इज्जत', 'लोग क्या कहेंगे' जैसी अमूर्त अवधारणाएँ, जो दरअसल हिंसा को वैधता देती हैं।
वास्तव में यह 'जड़ता की हिंसा' का एक विकृत रूप है, जो न केवल शारीरिक हिंसा में प्रकट होती है, बल्कि विचार और चेतना की हत्या में भी परिवर्तित हो जाती है। समाज में ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं, जहाँ बेटियों को उनके सपनों की कीमत चुकानी पड़ी है। विवाह के लिए 'उचित समय' की बाध्यता, करियर चुनने की स्वतंत्रता का अभाव, और जीवन के निर्णयों में मातृत्व या पुरुष संरक्षकत्व की अनिवार्यता, यह सब उसी जड़ मानसिकता के अंग हैं, जो परिवर्तन को विद्रोह समझती है और प्रगति को पाप।
गुड़गांव की वह बेटी केवल एक टेनिस खिलाड़ी नहीं थी, वह एक परिवर्तन की आकांक्षा थी, एक नव-चेतना की प्रतिनिधि थी, जो पसीने से नहीं, अपने आत्मबल से समाज के मानकों को चुनौती दे रही थी। किंतु उसकी हत्या यह सिद्ध करती है कि हमारे समाज में स्त्रियों की सफलता को अभी भी सहज स्वीकार नहीं किया गया है। पिता का क्रोध केवल व्यक्तिगत नहीं था- वह एक सामूहिक अवचेतन का अंधकारमय प्रतिबिंब था, जिसमें बेटियाँ अब भी परछाइयों में जीने के लिए अभिशप्त हैं।
यह केवल स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा की कहानी नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज की उस नैतिक दिवालियापन की दास्तान है, जिसमें हम आत्मनिरीक्षण की क्षमता खोते जा रहे हैं। हम नई तकनीक अपना रहे हैं, वैश्विक मंचों पर भागीदारी कर रहे हैं, मगर मानसिकता वही पुरानी, कुंठित और पुरुष-प्रधान बनी हुई है। जब तक सामाजिक मूल्यों की परिपाटी में संवेदनशीलता, सह-अस्तित्व और स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा नहीं होगी, तब तक यह जड़ता केवल हिंसा को जन्म देती रहेगी- कभी बेटे को 'पराया' धर्म अपनाने पर मारा जाएगा, तो कभी बेटी को अपने जीवन का निर्णय लेने पर।
इस प्रकार की घटनाएँ केवल समाचार-पत्र की सुर्खियाँ नहीं हैं। ये हमारी सामाजिक परछाइयों की घोषणाएँ हैं। इनका समाधान केवल कानूनी दंड से नहीं, बल्कि सामाजिक पुनर्रचना से संभव है। हमें अपने बच्चों को यह सिखाना होगा कि स्वतंत्रता कोई अपराध नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व का दूसरा नाम है। अभिभावकों को यह समझना होगा कि उनकी संतानें उनकी संपत्ति नहीं हैं, वे स्वायत्त व्यक्तित्व हैं, जिन्हें सम्मान देना चाहिए, समर्थन देना चाहिए- नियंत्रण नहीं करना चाहिए।
आज आवश्यकता है कि हम अपनी संस्कृति की आत्मा को पहचानें, वह संस्कृति जो वैदिक काल से ही 'या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता' की वंदना करती आई है, मगर व्यवहार में उसी शक्ति को संदेह, भय और नियंत्रण की बेड़ियों में जकड़ती रही है। जब समाज का पितृसत्तात्मक अहंकार, स्त्री की संभावनाओं को दबाने के लिए उसे ही समाप्त कर देता है, तब यह केवल एक हत्या नहीं, बल्कि मानवता की पराजय होती है।
आज सोशल मीडिया पर उस बेटी की तस्वीरें, ट्रॉफियाँ और अधूरे ख्वाब लोगों को विचलित कर रहे हैं। मगर क्या यह क्षणिक संवेदना स्थायी बदलाव ला सकेगी? जब तक हम स्वयं से यह प्रश्न नहीं पूछेंगे कि हमारे भीतर की जड़ता कितनी हिंसक हो चुकी है, तब तक किसी बेटी का टेनिस रैकेट कभी अदालत की दहलीज पर रखा मिलेगा, कभी शमशान की राख में खोया मिलेगा।
समाज की सच्ची प्रगति उसकी बौद्धिक सजगता और नैतिक संवेदना में निहित होती है। समय आ गया है कि हम उन मूल्यों का पुनरावलोकन करें, जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के सम्मान में बाधक बनते हैं। 'जड़ता की हिंसा' केवल एक सामाजिक अवधारणा नहीं, यह एक नैतिक प्रश्न है कि क्या हम अपने बच्चों को, विशेषतः बेटियों को, उनके स्वप्नों के साथ जीने देंगे, या उन्हें अपने 'संस्कारों' के नाम पर कुर्बान करते रहेंगे?
यदि हम इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने में ईमानदार हो सके, तभी यह समाज वास्तव में प्रगतिशील कहा जाएगा। अन्यथा, विकास की हर गगनचुंबी इमारत के नीचे दबे होंगे ऐसे मासूम सपने, जो किसी दिन केवल इसलिए मिटा दिए गए कि वे पुराने मूल्यों की दीवारों में खिड़की बनाना चाहते थे। क्या अब भी समय नहीं आया है कि हम उस दीवार को गिराएँ, और एक ऐसे समाज की नींव रखें जहाँ जड़ता नहीं, जागरूकता हो, जहाँ परंपरा नहीं, परिवर्तन का स्वागत हो, और जहाँ हिंसा नहीं, संवेदना की गूंज हो?
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