मेरे जनक

मेरे जनक! तुम्हारे जीवन के
इन अंतिम क्षणों में,
मरण शैया पर
जब तुम्हें देखती हूँ,
तो तुम्हारे संग बिताये पल,
मेरी स्मृतियों में
बिजली की भांति कौंधते हैं।
मुझे याद है वो दिन
जब तुम मेरे लिए गुड़िया लाए थे,
याद है वो क्षण जब मैं कक्षा में अव्वल आई तो
तुम मुस्कुराए थे।
किंतु अपनी ही संतानों में ये कैसा भेद कर बैठे,
अपनी ही बेटी को पराई मान बैठे।
जीवन भर अपने सुखों का खजाना लुटाते रहे,
और बेटी को तरसाते रहे।
तुम तो बाध्य नहीं थे,
बेटे संग साथ निभाने के लिए,
शायद बांध लिए गए वंशबेल से
भीष्म की भांति
जीवन बिताने के लिए।
और नियति के हाथों
आज जब तुम विवश हो!

जीवन और मृत्यु से जूझते हुए,
तो तुम्हारी कर्मठता को याद कर,
तुम्हारी विवशता देखी नहीं जाती।
काश विधाता तुम्हें भी
भीष्म की भांति इच्छा मृत्यु का वर दे,
और जीवन मृत्यु के इस बंधन से तुम्हें मुक्त कर दे।
मुक्त कर दे…..
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- संध्या अग्रवाल
269, शक्ति नगर (एमपी)।

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