विकास के विनाशकारी प्रभाव
- कुलभूषण उपमन्यु
मानव समाज ज्यों ज्यों विकसित होता जा रहा है त्यों त्यों प्रकृति प्रदत्त जीवनदायी तत्वों का विनाश बढ़ता ही जा रहा है। हालांकि प्रकृति मित्र विकास के मॉडल विकसित करने के दावे और प्रयास किए जा रहे हैं, किन्तु जिस गति से प्रकृति का विनाश किया जा रहा है, उसकी भरपाई करना असंभव होता जा रहा है। हवा, पानी और भोजन जीवन की सबसे मूल जरूरतें हैं। हवा प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि विश्व के अनेक क्षेत्र गैस चैंबर बनते जा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते धरती पर पानी के भंडार खतरे में पड़ गए हैं। हिमनदों के पिघलने की गति बढ़ती जा रही है जिसके चलते आने वाले 40-50 वर्षों में ग्लेशियर समाप्त होने के कगार पर होंगे।
अमरीका के रौकिज से लेकर यूरोप की ऐल्प्स, काकेशस, और भारत की हिमालय पर्वत श्रृंखलाएं हिमनद विहीन होने वाली हैं। विज्ञान पत्रिका ‘साइंस’ के मुताबिक यदि हम वैश्विक तापमान वृद्धि को औद्योगिक क्रांति के बाद से 2 डिग्री सेंटी ग्रेड के भीतर नहीं रोक सके तो विश्व के ग्लेशियरों में सदी के अंत तक 10-15 फीसदी ही बर्फ बची रहेगी। इससे पानी की आपूर्ति करने वाली सदानीरा नदियां मौसमी बन कर रह जाएंगी जिनमें बारिश होने पर ही पानी होगा, या थोड़ा बहुत वनों द्वारा संरक्षित जल पर ही आबादी को निर्भर रहना पड़ेगा।
भूजल की स्थिति भी अच्छी नहीं है। भारत में 45 फीसदी क्षेत्र भूजल के अधिक दोहन के कारण लाल सूची में आ गए हैं। हिमनदों के जल्दी पिघलने के कारण हिमालयी क्षेत्रों में हिमनद जनित झीलें बन रही हैं। हिमनदों की बर्फ कच्चे मलबे के साथ टूट कर पर्वतीय संकरी घाटियों में गिर कर बर्फीले मलबे के बांध बना देती है, जिसमें हिमनदों का पानी जमा होता रहता है और जब पानी की मात्रा बांध की दीवार की झेलने की शक्ति से ज्यादा हो जाती है, तब ये हिमनद बांध टूट कर निचले क्षेत्रों में बाढ़ लाकर भारी तबाही का कारण बनते हैं। हिमाचल में 90 के दशक में पाच्र्हू से आई बाढ़ और उत्तराखंड में विष्णुगाड़ बाढ़ ताजा उदाहरण हैं। हिमालय में इस समय 28000 के करीब हिमनद झीलें बन चुकी हैं जिनमें से बहुत सी खतरनाक साबित हो सकती हैं। उपजाऊ जमीनें अत्यधिक उपज लेने के चक्कर में रासायनिक खादों और कीटनाशक और खरपतवार नाशक दवाइयों के प्रयोग के कारण अपनी शक्ति खोती जा रही हैं। यानी जिंदा रहने के लिए सबसे जरूरी तीनों तत्व खतरे की चपेट में हैं। और जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं का क्रम भी बढ़ता जा रहा है। अति वृष्टि और अनावृष्टि का क्रम आम हो गया है।
इस वर्ष हिमाचल में मार्च में औसत से कम बारिश हुई है। जब बारिश होती है तो बहुत भारी बारिश होती है। हिमाचल और उत्तराखंड में पिछले दो वर्षों से बरसात में भारी तबाही हो रही है। गत वर्ष हिमाचल में 450 के लगभग लोग अकाल मृत्यु का ग्रास बन गए थे। इस वर्ष मई महीने में ही कुल्लू और चंबा जिलों में बादल फटने की घटनाएं हो चुकी हैं, जिससे जन-धन की हानि हुई है। भारतीय ऊर्जा, पर्यावरण एवं जल परिषद ने इस वर्ष देश के 57 फीसदी जिलों को जिनमें 76 फीसदी आबादी का निवास है, अत्यंत भीषण गर्मी की चपेट में आने की चेतावनी दी है। 1993 से 2022 के बीच मौसम खतरा सूचकांक 2025 के अनुसार मौसम की भारी मार झेलने वाले देशों में भारत छठे स्थान पर है। 2024 की रिपोर्ट के अनुसार 2012-22 के बीच 55 फीसदी तहसीलों में बारिश में भारी वृद्धि दर्ज की गई। वैश्विक तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि के कारण ही यह स्थिति बनी है। तापमान में वृद्धि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि के कारण हुई है।
इन गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि अंधाधुंध निर्माण कार्यों में वृद्धि के कारण हुई है। अत्यधिक ऊर्जा की मांग के कारण जीवाश्म ईंधनों के प्रयोग में वृद्धि हो रही है। निर्माण कार्यों के कारण ग्रीन हाउस गैसों को प्रचूषित करके नियंत्रण करने वाले वनों का भी बहुत कटान हो रहा है। भारतवर्ष चीन और अमरीका के बाद सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश बन गया है। गत वर्षों में भारत कोयले के खनन को लगभग 5 फीसदी बढ़ा चुका है। जरूरत तो इसे कम करते जाने की है। हालांकि स्वच्छ ऊर्जा के लिए सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए अच्छे प्रयास हुए हैं। 2015 में सौर ऊर्जा का कुल ऊर्जा उत्पादन में योगदान 0.5 से बढ़ कर 5.8 फीसदी हो गया है। इस समय भारत की स्थापित सौर ऊर्जा क्षमता 73 गीगावाट है, जो विश्व स्तर पर छठे स्थान पर है। किन्तु 70 फीसदी ऊर्जा जरूरतें अभी भी कोयले से पूरी की जा रही हैं। इसे लगातार कम करने की जरूरत है। अत्यधिक बनावटी मांग पैदा करना एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। पूरा मीडिया इसी काम में लगा रहता है। उत्पादन प्रक्रिया का फलसफा अमरीकी फलसफे पर आधारित होता जा रहा है, जिसमें ‘यूज एंड थ्रो’ का सिद्धांत सर्वोपरि है। पुराने समय में उत्पाद ऐसे होते थे जिनकी मरम्मत करके सालों साल प्रयोग किया जा सकता था। मरम्मत करने वाले लोगों की एक बड़ी फौज को रोजगार भी मिलता था। अब तो ऐसी वस्तुएं बनने लगी हैं जिनको एक बार प्रयोग करके फैंकना ही पड़ता है। इससे एक तो संसाधनों का अत्यधिक दोहन और खनन करना पड़ता है और दूसरे, इतना ज्यादा कचरा पैदा हो रहा है जिसके निपटारे की समस्या नियंत्रण से बाहर हो रही है। इस सबके लिए अतिरिक्त ऊर्जा की जरूरत पड़ती है।
टिकाऊ उत्पाद बनाने से इस फिजूलखर्ची से बचा जा सकता है।इस फालतू कचरे के कारण वायु और जल प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है। प्लास्टिक कचरे के जल में पहुंचने से माइक्रो प्लास्टिक और नैनो प्लास्टिक मछलियों के पेट में पहुंच रहा है और वहां से मनुष्य के भोजन के रास्ते मनुष्य शरीर में पहंच कर नई नई समस्याएं पैदा कर रहा है। ग्लेशियर पिघलने से लाखों सालों से दबे कई तरह के वायरस भी प्रकट हो रहे हैं जिनके बारे में कोई समझ अभी विकसित होना कठिन है। वन्य प्राणियों के शरण स्थल वन घटते जाने से वन्य प्राणियों के आबादियों में आने से मानव-वन्य प्राणी संघर्ष तो बढ़ ही रहा है, साथ ही उनके वायरस भी मनुष्य प्रजाति को खतरा पैदा कर रहे हैं। कोरोना भी तो जंगली चमगादड़ों के ही माध्यम से फैला था, चाहे उन पर किए जा रहे कुछ प्रयोगों की वजह से ही क्यों न हो। अत: अति उपभोग पर आधारित सभ्यता को सादगी की ओर ले जाने की दिशा में सोचना होगा। टिकाऊ विकास की बात को यथार्थ में जमीनी स्तर पर लाना होगा।
(पर्यावरणविद)
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