कैसी-कैसी सोच कार्टून


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
आजकल के ज़माने में लोग अपने दुखों को ऐसे गर्व से बयान करते हैं जैसे वे कोई उपलब्धि हों। एक मित्र ने बताया कि उनकी कार का बीमा प्रीमियम बढ़ गया है। वे इतने दुखी थे जैसे उनकी कार ही छिन गई हो। मैंने कहा, "भाई, तुम्हारी कार तो अभी भी तुम्हारे पास है, तुम्हारी जेब से थोड़े पैसे ज्यादा जा रहे हैं।" वे बोले, "तुम क्या समझो, ये पैसे कोई छोटी बात नहीं है।" मैंने सोचा, शायद उनकी कार प्लैटिनम मॉडल है और प्रीमियम भी प्लैटिनम दर से देना पड़ता है।
एक अन्य मित्र ने बताया कि उनका बेटा अब महंगे स्कूल में पढ़ रहा है। उसकी फीस सुनकर मेरे तो होश उड़ गए। मैंने कहा, "भाई, तुम्हारा बेटा अच्छी शिक्षा पा रहा है, ये तो खुशी की बात है।" वे बोले, "खुशी की बात तो है, लेकिन फीस इतनी है कि लगता है हमें दो वक्त की रोटी के लिए भीख मांगनी पड़ेगी।" मैंने सोचा, शायद उनका बेटा भविष्य में करोड़पति बनेगा और उन्हें भीख मांगने की नौबत नहीं आएगी।
एक और परिचित ने बताया कि उनका ऑफिस उनके घर से बहुत दूर है और उन्हें रोज़ जाम में फँसना पड़ता है। वे इतने दुखी थे जैसे वे कोई युद्ध लड़ रहे हों। मैंने कहा, "भाई, जाम तो सब जगह लगता है, थोड़ा धैर्य रखो।" वे बोले, "तुम क्या जानो, समय और पेट्रोल कितना बर्बाद होता है।" मैंने सोचा, शायद वे भविष्य में वर्क-फ्रॉम-होम की खोज करने वाले वैज्ञानिक बनेंगे।
लोग अपने दुखों को इस तरह बयान करते हैं जैसे वे दुख ही उनकी पहचान हों। अगर इनसे इनके दुख छीन लिए जाएं, तो शायद ये खुद को पहचान भी न पाएं। एक सज्जन ने बताया कि उनका प्रमोशन नहीं हो रहा है। वे इतने दुखी थे जैसे उनका जीवन ही व्यर्थ हो गया हो। मैंने कहा, "भाई, प्रमोशन तो एक दिन होगा ही, तब तक मौज करो।" वे बोले, "तुम क्या जानो, प्रमोशन नहीं होने से मेरी इज्जत कम हो रही है।" मैंने सोचा, शायद उनकी इज्जत उनके प्रमोशन पर निर्भर करती है।
आजकल के ज़माने में दुख भी एक प्रतिस्पर्धा बन गई है। लोग अपने दुखों की तुलना दूसरों से करते हैं और देखते हैं कि किसका दुख बड़ा है। एक सज्जन ने बताया कि उनकी पत्नी ने उन पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की। वे इतने दुखी थे जैसे उनकी दुनिया ही उजड़ गई हो। मैंने कहा, "भाई, ये तो घरेलू बातें हैं, इन्हें इतना गंभीरता से मत लो।" वे बोले, "तुम क्या जानो, मेरी पत्नी के व्यंग्य की मार कितनी घातक होती है।" मैंने सोचा, शायद उनकी पत्नी की व्यंग्यात्मक टिप्पणियों का एक संग्रह प्रकाशित होना चाहिए।
कुल मिलाकर, आजकल के ज़माने में लोग अपने दुखों को इतना बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं कि लगता है ये दुख नहीं, बल्कि एक फैशन हैं। और अगर किसी के पास दुख नहीं है, तो वह अपनी शान नहीं समझता।

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