दूषित नदियों से सेहत के बढ़ते खतरे

- विजय गर्ग
वर्तमान युग को पर्यावरणीय संकट का युग कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। विकास, शहरीकरण, उद्योगीकरण और बढ़ती जनसंख्या के दबाव ने प्राकृतिक संसाधनों पर जो बोझ डाला है, उसका परिणाम आज हमारे सामने साफ दिखाई दे है। जल संसाधनों का संकट भी इन्हीं समस्याओं का विकराल रूप है। भारत की संस्कृति और सभ्यता नदियों के किनारे विकसित हुई, लेकिन आज वह नदियों के अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रहा है। कनाडा के शोधकर्ताओं ने हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में भारत की नदियों के संदर्भ में चिंताजनक स्थिति उजागर की है। अध्ययन के अनुसार भारत की लगभग अस्सी फीसद नदियां प्रदूषण के कारण गंभीर पर्यावरणीय और स्वास्थ्य संकट का सामना कर रही हैं। इस शोध में 72 के 877 नदी स्थलों 21 सामान्य एंटीबायोटिक की मौजूदगी का परीक्षण किया और पाया गया कि भारत, पाकिस्तान, नाइजीरिया, इथियोपिया और वियतनाम जैसे देशों में स्थिति बेहद भयावह है।
एंटीबायोटिक प्रदूषण का अर्थ है- मानव, पशु चिकित्सा या कृषि में प्रयुक्त दवाइयों के अंशों का अनियंत्रित, अनियमित एवं अनावश्यक रूप से पर्यावरण में उत्सर्जित होना । जब ये अंश जल, मृदा या वायु में प्रवेश करते हैं, तो ये केवल स्थलीय जीवन को नहीं, जलीय और समग्र पारिस्थितिकी तंत्र को भी प्रभावित करते हैं। भारत में विशेष रूप से कई दवाओं के अत्यधिक स्तर पाए गए हैं। इनमें से 'सेफिक्सिम' की उपस्थिति भारतीय नदियों में व्यापक पाई गई है। ये तथ्य स्वयं इस बात की पुष्टि कही हैं। वर्तमान अध्ययन के निष्कर्षों के करते हैं कि एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग और निपटान में गंभीर त्रुटियां हो अनुसार, भारत में लगभग 31.5 करोड़ लोग ऐसे क्षेत्रों में निवास कर रहे हैं, जहां जल स्रोत एंटीबायोटिक अवशेषों से प्रभावित हैं। यह तथ्य अत्यंत गंभीर है क्योंकि दूषित जल मानव स्वास्थ्य के लिए प्रत्यक्ष खतरा उत्पन्न करता है। दिल्ली, लखन, गोवा और चेन्नई जैसे प्रमुख महानगरों में नदियों के जल में एंटीबायोटिक दवाओं की सांद्रता विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित सुरक्षित सीमा से दो से पांच गुना अधिक पाई गई है। इस संदर्भ में यह समझना आवश्यक है कि जल में उपास है कि जल में उपस्थित एंटीबायोटिक अवशेष सीधे तौर पर न केवल मानव जीवन, बल्कि जलीय जीव-जंतुओं, सूक्ष्मजीवों और संपूर्ण खाद्य श्रृंखला को प्रभावित करते हैं। पर्यावरण में एंटीबायोटिक पोटिक प्रदूषण के विविध स्रोत हैं। | प्रमुख औषधि उद्योगों से उत्पन्न अपशिष्ट जल शामिल है, जिसे उपचारित किए बिना जल स्रोतों में प्रवाहित कर दिया जाता है। भारत में अनेक औषध निर्माण इकाइयां पर्यावरणीय मानकों का उल्लंघन करते हुए अपशिष्ट जल को नदियों, में मिलाती हैं। इसके अलावा मानव तथा पशु चिकित्सा में एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक तथा अनियंत्रित उपयोग भी इस संकट का बड़ा कारण है। अक्सर देखा जाता है कि बिना चिकित्सक के परामर्श के ही दवाइयां खरीदी जाती हैं और स्व-चिकित्सा की प्रवृत्ति आम हो चली है। इसके कारण न केवल दवाओं का अनावश्यक सेवन बढ़ता है, बल्कि इनके अवशेष शरीर से बाहर निकल कर जल स्रोतों को भी दूषित करते हैं।


पशुपालन और कृषि क्षेत्र में भी वृद्धि दर बढ़ाने और बीमारियों से सुरक्षा के लिए एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक उपयोग होता है। इसके परिणामस्वरूप मृदा तथा जल प्रदूषित होते हैं। एंटीबायोटिक प्रदूषण के दुष्परिणाम अत्यंत व्यापक हैं। जब जल स्रोतों में एंटीबायोटिक अवशेषों की अधिकता होती है, तो सूक्ष्मजीवी समुदायों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में संतुलन बनाए रखने में सूक्ष्मजीवों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इनके असंतुलन से संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो सकता है। जलीय जीवों की प्रजातियां, विशेष कर मछलियां झींगे आदि, एंटीबायोटिक प्रदूषण के प्रति अत्यंत संवेदनशील होती हैं। इससे उनकी जैव विविधता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जो दीर्घकाल में खाद्य श्रृंखला को भी प्रभावित करता है।
मानव स्वास्थ्य पर भी इसके दुष्प्रभाव अत्यंत गंभीर हैं। एंटीबायोटिक अवशेषों के निरंतर संपर्क से जलजनित रोगों का खतरा बढ़ जाता है। दूषित जल के सेवन या उससे सिंचित फसलों के माध्यम से मानव शरीर में एंटीबायोटिक के प्रवेश कर कर सकते हैं, जिससे आंतों के संक्रमण, एलर्जी, प्रतिरक्षा तंत्र की दुर्बलता, यकृत तथा गुर्दे की समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। सबसे गंभीर प्रभाव एंटीबायोटिक प्रतिरोध के रूप में सामने आता है। जब जीवाणु निरंतर एंटीबायोटिक दवाओं के के संपर्क में रहते हैं, तो वे उनके विरुद्ध प्रतिरोधी बन जाते हैं, जिससे सामान्य संक्रमणों का उपचार कठिन हो जाता है। वर्तमान में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एंटीबायोटिक प्रतिरोध को वैश्विक स्वास्थ्य संकटों में से एक घोषित किया है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग अट्ठावन हजार नवजात शिशुओं की मृत्यु इसी कारण हो रही। इस संकट की गंभीरता को रेखांकित करता है। कृषि पर भी इस संकट का सीधा प्रभाव पड़ रहा । इस प्रकार एंटीबायोटिक प्रदूषण केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं, अपितु आर्थिक एवं सामाजिक समस्या भी बन चुका है, जिसका समाधान तत्काल आवश्यक है।
भारत सरकार ने इस दिशा में कुछ प्रयास किए गए हैं। गंगा कायाकल्प योजना, नमामि गंगे अभियान, जल जीवन मिशन जैसे कार्यक्रम जल संसाधनों को गुणवत्ता सुयोगों के लिए कह दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं, संसाधनों की गुणवत्ता सुधारने के लिए चलाए जा रहे हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने औषधि उद्योगों के लिए कुछ जिनके तहत अपशिष्ट जल उपचार संयंत्रों की स्थापना आवश्यक की गई है। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा औद्योगिक इकाइयों पर निगरानी रखी जा रही है। मगर इन प्रयासों की सफलता सीमित है। निगरानी व्यवस्था की शिथिलता तथा पर्यावरणीय नियमों के " अनुपालन में लचरता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। इस संकट का समाधान बहुपक्षीय, समन्वित तथा दीर्घकालिक दृष्टिकोण की मांग करता है। सबसे पहले तो औषधि निर्माण उद्योगों को उत्तरदायी बनाना अत्यावश्यक है।
एंटीबायोटिक दवाओं के अनावश्यक प्रयोग से बचने के लिए व्यापक जन जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए। विद्यालयों, महाविद्यालयों, स्वास्थ्य केंद्रों और ग्राम सभाओं के माध्यम से लोगों को यह बताया जाना चाहिए कि एंटीबायोटिक दवाओं का दुरुपयोग किस प्रकार दीर्घकालिक संकटों को जन्म देता है। साथ ही, स्व-चिकित्सा की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए दवा विक्रय तंत्र को भी नियंत्रित करना होगा। पशुपालन एवं कृषि क्षेत्र में भी एंटीबायोटिक उपयोग के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश बनाने और उनके कठोर अनुपालन को सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।


भावी पीढ़ियों को शुद्ध जल, सुरक्षित खाद्य और स्वस्थ पर्यावरण उपलब्ध कराना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है।यदि आज निर्णायक कदम नहीं उठाए गए, तो कल यह संकट हमारी सभ्यता के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर देगा। नदियां केवल जल स्रोत नहीं, अपितु हमारी सांस्कृतिक विरासत, आर्थिक जीवनरेखा और पारिस्थितिकी संतुलन की धुरी हैं। इनका संरक्षण मानवता के संरक्षण के समान है। अतः एंटीबायोटिक प्रदूषण को मात्र एक स्वास्थ्य समस्या या एक पर्यावरणीय समस्या न मान कर इसे एक व्यापक जीवन संकट मैं स्वीकार करना चाहिए और समस्त समाज को मिल कर इस दिशा में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। तभी हम उस भारत की कल्पना साकार कर सकेंगे, जहां नदियां स्वच्छ बहेंगी, जीवन सुरक्षित रहेगा और विकास सतत एवं समावेशी होगा।
(सेवानिवृत्त प्रिंसिपल, मलोट पंजाब)

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