जब युद्ध की गर्जना थम जाती है


- नृपेन्द्र अभिषेक नृप
सीमाओं पर जब धूल उड़ती है, तो वह केवल मिट्टी नहीं होती वह उन सपनों की राख होती है, जो हर आम नागरिक ने अपने कल के लिए सँजोए होते हैं। भारत और पाकिस्तान के संबंधों की कहानी एक ऐसी किताब है, जिसकी हर पंक्ति बारूद की स्याही से लिखी गई है और हर अध्याय में शहादत की छाया है। वर्षों से यह संबंध युद्ध और संघर्ष की आँच में तपते रहे हैं और हर बार जब शांति की कोई किरण फूटी, तो वह या तो छलावा साबित हुई या राजनीति की पीठ पर छुरा। ऐसे समय में, जब फिर से युद्ध की गूंज सीमाओं पर सुनाई दे रही थी, भारत सरकार द्वारा लिया गया संघर्ष विराम का निर्णय केवल एक सैन्य रोक नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय आत्ममंथन का परिणाम है।
जब भी सीमाओं पर गोलियों की गूँज अचानक थम जाती है, तो राष्ट्र की आत्मा में प्रश्नों की एक अंतहीन श्रृंखला उठ खड़ी होती है। भारत और पाकिस्तान के बीच लंबे समय से चला आ रहा संघर्ष, जो बार-बार युद्ध की दहलीज़ तक पहुँचता रहा है, एक बार फिर सीजफायर के द्वार पर आकर ठिठक गया है। ऐसे में जब जनमानस राष्ट्र की विजय की प्रतीक्षा कर रहा था, तब युद्ध के शिखर से लौट आना, क्या विवेक का परिचायक है या पराजय का संकेत? यही वह प्रश्न है जो आज हर भारतीय के हृदय में गूंज रहा है।

कूटनीति की कसौटी पर सीजफायर:
सीजफायर कोई कायरता नहीं,बल्कि वह क्षण होता है जब राष्ट्र अपने दीर्घकालीन लक्ष्यों को समझते हुए तात्कालिक आवेश को वश में कर लेता है। भारत जब युद्ध के मुहाने पर था और विजय उसके निकट प्रतीत हो रही थी, तब सरकार द्वारा सीजफायर का मार्ग चुनना एक ऐसा निर्णय था जो तात्कालिक भावनाओं से नहीं, दूरदृष्टि से प्रेरित था। यह निर्णय केवल रणभूमि की जीत नहीं, अपितु मानवता, कूटनीति और विकास की दीर्घकालिक रणनीति की जीत है।

युद्ध की कीमत: गर्व की नहीं, घावों की विरासत
जो युद्ध के नगाड़ों में केवल राष्ट्रगौरव की गूंज सुनते हैं, वे शायद उसके पीछे छिपी माताओं की सिसकियाँ, अनाथ बच्चों की चीखें, और वीरों की चिताओं से उठते धुएँ को नहीं देख पाते। युद्ध कोई उत्सव नहीं, यह एक विषपान है जिसे राष्ट्र अपनी रक्षा के लिए अंततः पीता है। भारत ने यदि यह निर्णय लिया कि अब रक्त की जगह संवाद की राह चुननी है, तो यह केवल रणभूमि पर नहीं, बल्कि मनुष्यत्व की भूमि पर लिया गया निर्णय है। हर गोली जो नहीं चली, वह किसी बेटे की जान बचा सकती है और यही वह लाभ है जो आँकड़ों में नहीं, आंसुओं में देखा जाना चाहिए।

सन्नाटे में गूंजती शांति की पदचाप
इस संघर्ष विराम ने भारत को वह स्थिरता दी है जो विकास की गाड़ी के लिए आवश्यक है। सीमाओं पर शांत वातावरण का सीधा प्रभाव देश के आंतरिक निवेश, इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण, और विदेशी संबंधों पर पड़ता है। उद्योग जगत को राहत मिलती है, पर्यटन को प्रोत्साहन मिलता है, और नागरिकों को सुरक्षा की भावना मिलती है। भारत एक उभरती वैश्विक शक्ति है और ऐसी स्थिति में जब पूरा विश्व आर्थिक पुनरुद्धार की ओर अग्रसर है, युद्ध का विकल्प केवल आत्मघाती ही होता। इस सीजफायर ने भारत को वह कूटनीतिक ऊंचाई भी दी है जहां से वह विश्व बिरादरी में एक संयमित, परिपक्व राष्ट्र की छवि गढ़ रहा है।

क्या यह एक अस्थायी ठहराव है?
 यह स्वीकार करना भी आवश्यक है कि यह सीजफायर स्थायी समाधान नहीं है। पाकिस्तान के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जब उसने संघर्ष विराम की आड़ में पुनः अपनी नापाक हरकतों को जन्म दिया है। यदि यह शांति केवल रणनीतिक विश्राम है, और भीतर ही भीतर आतंकवाद को फिर से पाल-पोसने का समय है, तो भारत को अपनी सजगता बनाए रखनी होगी। इस निर्णय का मूल्य तभी है जब यह एक दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा हो, न कि क्षणिक भ्रम।



 राष्ट्रवाद बनाम व्यावहारिकता
नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा सीजफायर का रास्ता चुने जाने को लेकर राष्ट्रवादी खेमे में असंतोष स्पष्ट दिख रहा है। उनका मानना है कि जब भारत जीत की ओर अग्रसर था, तब ठहरना रणनीतिक भूल है। परंतु युद्ध केवल रणभूमि पर नहीं लड़ा जाता, वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर, आर्थिक गलियारों में, और कूटनीतिक वार्ताओं में भी लड़ा जाता है। प्रधानमंत्री मोदी, जिन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में राष्ट्रवाद की मशाल को ऊँचाई दी है, वह ऐसे समय में यदि शांति का मार्ग चुनते हैं, तो यह न केवल उनके आत्मविश्वास को दर्शाता है, बल्कि यह भी कि वे राष्ट्रहित को भावनात्मक उन्माद से ऊपर रखते हैं।

युद्ध नहीं, विकास की आवश्यकता
इस निर्णय की सबसे बड़ी सफलता यह है कि उसने देश को युद्ध की विभीषिका से बचाकर विकास की राह पर बने रहने दिया। आज जब भारत को बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और नवाचार जैसे क्षेत्रों में लंबी छलांग लगानी है, तब युद्ध केवल एक विघ्न बनकर सामने आता। जो युवा सैनिकों की शहादत को श्रद्धांजलि समझते हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि वह श्रद्धांजलि तब और सार्थक होगी जब उनका बलिदान देश को समृद्धि के मार्ग पर अग्रसर करेगा, न कि बार-बार युद्ध के गड्ढे में गिरने के लिए मजबूर करेगा।



युद्ध की ज्वाला या शांति का दीप?
सीजफायर की इस संध्या में भारत ने युद्ध की आग को नहीं, शांति के दीप को जलाना चुना है। यह निर्णय जनभावनाओं से नहीं, जनकल्याण से प्रेरित है। यह ठहराव कोई कमजोरी नहीं, यह वह तैयारी है जो आने वाले वर्षों में भारत को न केवल क्षेत्रीय महाशक्ति बनाएगी, बल्कि एक ऐसे राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित करेगी जो युद्ध कर सकता है, पर युद्ध से पहले सोचता है। यही विवेक, यही संयम और यही भविष्य की दिशा है।

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