जलवायु  परिवर्तन बना गंभीर चुनौती
 इलमा अज़ीम 
जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना और पर्वतीय क्षेत्रों में घटती बर्फबारी पूरी दुनिया की खाद्य और जल सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन चुकी है। दुनिया में मौजूद 2.75 लाख से अधिक ग्लेशियरों का सात लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है। संयुक्त राष्ट्र और विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार, सभी 19 ग्लेशियर क्षेत्रों में लगातार तीन वर्षों से नुकसान देखा गया है, जिनमें नार्वे, स्वीडन और स्वालबार्ड जैसे क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हैं।
 कोलोराडो नदी का सूखना इस संकट की भयावहता को दर्शाता है। यूनेस्को के अनुसार, दुनिया के 70 फीसदी पेयजल का स्रोत ग्लेशियर ही हैं और इनके विलुप्त होने से जल संकट और भी विकराल हो सकता है। नासा और नेशनल स्नो एंड आइस डेटा सेंटर के शोध के अनुसार वर्ष 2010 से अब तक आर्कटिक और अंटार्कटिका की बर्फ में लाखों वर्ग किलोमीटर की कमी आ चुकी है। 
वर्तमान में वहां केवल 143 लाख वर्ग किलोमीटर बर्फ शेष रह गई है, जो 2017 के रिकॉर्ड निचले स्तर से भी कम है। वर्ष 2000 से 2023 के बीच ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका के ग्लेशियरों से हर साल करीब 270 अरब टन बर्फ पिघल रही है, जो वैश्विक आबादी द्वारा 30 वर्षों में उपयोग किए जाने वाले पानी के बराबर है।


 नासा के वैज्ञानिक लिनेन बोइसवर्ट के अनुसार, अगली गर्मियों में और भी कम बर्फ बचने की आशंका है। इसका मुख्य कारण मानवीय गतिविधियों द्वारा तापमान में हुई वृद्धि है, विशेषकर जीवाश्म ईंधनों के अत्यधिक उपयोग से। जैसे-जैसे वैश्विक तापमान बढ़ता है, ग्लेशियर बनने की तुलना में कहीं अधिक तेजी से पिघलते हैं, जिससे उनका अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है। यह संकट केवल बर्फ के खत्म होने का नहीं, बल्कि पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व पर मंडराते खतरे का संकेत है। 
यह न केवल पर्यावरणीय असंतुलन का संकेत है, बल्कि दक्षिण एशिया की लगभग 160 करोड़ आबादी के लिए जल संकट और प्राकृतिक आपदाओं का खतरा भी बढ़ा रहा है। करीब 33,000 वर्ग किलोमीटर में फैले ये ग्लेशियर ताजे पानी के विशाल भंडार हैं, जिन पर गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों की जलापूर्ति निर्भर करती है। 


यह स्थिति और भी चिंताजनक तब हो जाती है जब वैज्ञानिक चेतावनी देते हैं कि यदि वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो सदी के अंत तक एक-तिहाई और यदि यह वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचती है तो दो-तिहाई हिमालयी ग्लेशियर समाप्त हो सकते हैं। ग्लेशियरों के इस संकट से यह स्पष्ट है कि अब समय शब्दों का नहीं, कार्यों का है। जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता खत्म करना, वैश्विक तापमान वृद्धि को सीमित करना और जल स्रोतों को संरक्षित करना मानवता की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए।

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