इलमा अज़ीम
प्लास्टिक कचरा आज पर्यावरणीय संकट का एक बड़ा कारण बन चुका है, जो हमारे जल, वायु और भूमि को प्रभावित कर रहा है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के स्थानीय निकायों से ठोस कूड़े के निष्पादन में कोताही पर सवाल उठाया है, जबकि यह समस्या पूरे देश में फैली हुई है। हर दिन छोटे गांवों से लेकर महानगरों तक ठोस कूड़े का पहाड़ बढ़ रहा है, जो धरती, पानी और हवा को प्रदूषित करता है।
कूड़े का एक बड़ा हिस्सा प्लास्टिक का है, जो अब हमारे तंत्र और स्वास्थ्य के लिए गंभीर संकट बन चुका है। यह वैश्विक स्तर पर एक बड़ी चुनौती बन गई है। यह प्लास्टिक अति सूक्ष्म रूप में हमारे समूचे तंत्र की रक्त शिराओं से लेकर सांस तक के लिए संकट बन चुकी है। वर्ष 2014 में शुरू हुआ स्वच्छता अभियान शौचालय और कचरे के प्रति आम लोगों को जागरूक करने में सफल रहा, लेकिन आंकड़ों पर गौर करें तो यह स्पष्ट होता है कि कचरे का उत्पादन तो कम हुआ नहीं, बल्कि उसका निपटान भी प्रभावी तरीके से नहीं हो पा रहा है।
हमने कोई ऐसा ठोस कदम या विधान विकसित नहीं किया है, जिससे कचरा कम हो और उसका नियमित, कारगर निपटान हो। जनवरी, 2019 में केंद्र सरकार ने ‘सिंगल-यूज़ प्लास्टिक’ पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन हाल ही में संसद में पेश किए गए आंकड़े भयावह हैं। देश में हर साल 41.36 लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न हो रहा है और तमिलनाडु सबसे अधिक प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करने वाला राज्य है।
असल में कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने खुद किया है। कुछ साल पहले तक स्याही वाले पेन होते थे, जिनमें केवल रिफिल बदला जाता था, लेकिन आजकल ऐसे पेन का प्रचलन है जिन्हें खत्म होने पर फेंक दिया जाता है। बढ़ती साक्षरता दर के साथ इन पेनों का इस्तेमाल और कचरा बढ़ता गया।
इसी तरह, शेविंग किट में अब ‘यूज एंड थ्रो’ रेजर का चलन बढ़ गया है। वहीं दूध और पीने का पानी भी कचरा बढ़ाने वाली बोतलों में मिल रहा है। मेकअप का सामान, डिस्पोजेबल बर्तन, पाॅलीथीन की थैलियां और पैकिंग की अनावश्यक मात्रा, ये सब ऐसे तरीके हैं, जिनसे हम कचरे को बढ़ाते जा रहे हैं।
लेखिका एक स्वत्रतं पत्रकार है
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