मौकापरस्त दलबदल
इलमा अजीम
भारतीय लोकतंत्र में दल बदल कोई नई बात नहीं है। फर्क इतना ही है कि पहले दलों की विचारधारा से असहमति दल बदलने की वजह रहती थी और अब यह वजह सत्ता की चाह बन गई है। हर चुनावों के पहले होने वाले दलबदल, नेताओं की उस सोच की ओर भी ध्यान दिलाते हैं जिसमें एक दौर में पार्टी को मां बताने वाले टिकट नहीं मिलने पर पल भर में पार्टी छोड़ देते हैं।
जब कोई दलबदल पार्टी से टिकट न मिलने पर चुनाव के ठीक पहले होता है, तो यह न केवल नैतिकता पर सवाल खड़े करता है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थिरता पर भी चोट पहुंचाता है। हाल ही आम आदमी पार्टी (आप) के विधायकों ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सदस्यता ग्रहण कर ली। इससे पहले भी चुनावों के दौर में आयाराम-गयाराम के किस्से लगभग हर राजनीतिक दल में सामने आते रहे हैं। सवाल यही उठता है कि मौकापरस्ती के ये दलबदल क्या जनादेश के साथ विश्वासघात नहीं है? क्या इस तरह के दलबदल को कानूनी रूप से नियंत्रित नहीं किया जाना चाहिए? और सबसे महत्त्वपूर्ण, इसका लोकतंत्र और मतदाताओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा? जब कोई नेता किसी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतता है, तो वह केवल अपनी योग्यता के आधार पर नहीं, बल्कि उस पार्टी की विचारधारा, नीतियों और एजेंडे के समर्थन से जीतता है।
मतदाता जब अपने मताधिकार का प्रयोग करता है, तो वह व्यक्ति के साथ-साथ पार्टी की विचारधारा को भी अपना समर्थन देता है। ऐसे में, जब चुने गए जनप्रतिनिधि अचानक अपनी पार्टी छोड़कर किसी अन्य पार्टी में शामिल हो जाते हैं, तो यह सीधे तौर पर जनता के विश्वास का अपमान है। दरअसल, यह व्यक्तिगत लाभ और राजनीतिक अवसरवादिता का उदाहरण है। यह लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है, क्योंकि इससे राजनीति में पारदर्शिता और नैतिकता का पतन होता है।
पिछले कुछ समय में तो यह भी देखने को आया कि टिकट व साधनों की गांरटी पर जनप्रतिनिधि अपने पद से इस्तीफा देकर उपचुनाव के जरिए वापस सदन की सदस्यता ग्रहण कर बड़े पद प्राप्त कर लेते हैं। राजनीतिक दलबदल का सबसे बड़ा प्रभाव मतदाताओं पर पड़ता है। भारतीय राजनीति में इस तरह की प्रवृत्ति को रोकने के लिए सख्त कानूनों और नैतिक मूल्यों को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है।
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