शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने की चुनौती
राजीव त्यागी
शिक्षा में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से राजनीतिक प्रयोग होते रहे हैं। चूंकि शिक्षा समाज के वर्तमान और भविष्य, दोनों से जुड़ी रहती है, इसलिए उसमें राजनीतिक दिलचस्पी स्वाभाविक है। आजादी के बाद सेक्युलर दृष्टि शिक्षा की आधारशिला बनी, जिसने बहुत कुछ जो भारतीय था, उसे भुला दिया, बहिष्कृत कर दिया या घटा-बढ़ाकर विकृत रूप में शामिल किया।
शिक्षा की प्रक्रिया को पश्चिमी दुनिया के अनुकूल बनाने और उसी के पैमाने पर चलाने का उद्यम चलता रहा। औपनिवेशिक काल में ज्ञान और संस्कृति के एकल प्रतिमान के रूप में जो अंग्रेजियत स्थापित हुई, वह वर्चस्व बनाती गई। स्वतंत्र भारत में अपनाई गई शिक्षा की नीतियां, योजनाएं, प्रविधान और उनका कार्यान्वयन प्रायः पुरानी लीक पर ही होता रहा। स्वतंत्रता के बाद अपनाए गए पश्चिमी माडल से हम उबर नहीं पाए हैं। थोड़ा बहुत हेरफेर कर काम चलाते रहे। परिणाम यह हुआ कि भारतीय शिक्षा के समग्र, समावेशी और स्वायत्त स्वरूप विकसित करने की बात धरी की धरी रह गई।
अमृतकाल में भारत ने 2047 तक देश को विकसित करने का संकल्प लिया है, ताकि आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और जीवन की गुणवत्ता की दृष्टि से देश की सामर्थ्य में अभिवृद्धि हो और वह विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में पहुंच जाए। कई वर्षों से शिक्षा पर देश के बजट में छह प्रतिशत खर्च करने की बात होती रही है, परंतु वास्तविक व्यय तीन प्रतिशत भी कठिनाई से हो पाता है। विकास के पहिए की धुरी शिक्षा होती है। इसलिए यह राष्ट्रीय नियोजन में उचित महत्व की हकदार है। आज शैक्षिक परिवेश अध्यापकों की कमी और उनकी गैर-अकादमिक आकांक्षाओं से दूषित हो रहा है। पेपर लीक की घटनाएं, शोध में चोरी (प्लैगरिज्म) का चलन बढ़ रहा है।
न में वृद्धि और नवोन्मेष की जगह दोहराव और कापी-पेस्ट की प्रवृत्ति तेजी से फैल रही है। ज्ञान की कवायद तो हो रही है, पर पढ़ाई की गुणवत्ता घट रही है। खस्ताहाल विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय की पढ़ाई नाकाफी हो रही है। उसकी भरपाई करते कोचिंग संस्थान लोकप्रिय और नफे वाला व्यापार बन चुका है। इसके दबाव में विद्यार्थियों का मानसिक स्वास्थ्य नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहा है। लोकहित के व्यापक लक्ष्यों के लिए समानता और समता जरूरी है, पर भारत में शिक्षा कई तरह से विभेदकारी होती जा रही है। आज सरकारी, अर्ध-सरकारी और स्ववित्तपोषित संस्थाएं चल रही हैं। उनमें फीस, प्रवेश, पढ़ाई और परीक्षा के तौर-तरीके भी बेमेल हैं। बच्चे को पढ़ाना अभिभावकों के लिए बरसों बरस चलने वाले संघर्ष बन गया है।
केंद्रीय बजट में शिक्षा की बारी बहुत बाद में आती है। दुनिया के अन्य देशों के सापेक्ष शिक्षा के लिए छह प्रतिशत आवंटन की वकालत कई सालों से की जा रही है। देश के 14.72 लाख विद्यालयों में 98 लाख शिक्षक 24.8 करोड़ विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करते हैं। वित्त मंत्री ने बजट में सभी बच्चों को सौ प्रतिशत स्कूल भेजने का लक्ष्य तय किया है और तकनीकी शिक्षा और शोध विशेषतः कृत्रिम मेधा पर विशेष ध्यान दिया गया है। इसके लिए 500 करोड़ रुपये की व्यवस्था की गई है। इसके अतिरिक्त डिजिटल इंडिया ई-लर्निंग के लिए 681 करोड़ का आवंटन है।
मेडिकल कालेजों में 10 हजार अतिरिक्त सीटें होंगी। स्कूलों और उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए डिजिटल किताबें देने की तैयारी है। आइआइटी का विस्तार करते हुए पांच आइआइटी के लिए अतिरिक्त बुनियादी ढांचा शिक्षा, रोजगार और कौशल विकास के लिए 1.48 लाख करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है। स्कूली शिक्षा की चुनौती बहुत बड़ी है, पर नवोदय विद्यालयों का बजट कटा है। केंद्रीय विद्यालयों, यूजीसी, एनसीईआरटी, केंद्रीय विश्वविद्यालयों का बजट बढ़ा है। उच्च शिक्षा के लिए 7.74 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। शिक्षा के क्षेत्र में आवंटन में 6.65 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। कुल बजट का 2.5 प्रतिशत आवंटन शिक्षा के लिए है।
आज जनसंख्या की दृष्टि से भारत विश्व में प्रथम हो चुका है, पर संसाधन सीमित हैं। शैक्षिक नेटवर्क और आधार संरचना को बढ़ाने की आवश्यकता है। विश्व में युवा देश के रूप में भारत से आशा बंधती है, परंतु इस युवा शक्ति को नियोजित करना जरूरी है। विश्व-गुरु बनने की उत्कट इच्छा व्यक्त की जाती है, लेकिन युवा वर्ग को सभ्य, सुशिक्षित और दक्ष बनाकर ही हम आगे बढ़ सकेंगे। शिक्षा को देशकाल के अनुकूल एक नैतिक और मानवीय उपक्रम बनाकर ही यह किया जा सकेगा। मानवता को तकनीकी विशेषज्ञों के भरोसे छोड़ना भूल होगी। डिजिटल, वर्चुअल एवं एआइ की ओर झुकाव और मानविकी की उपेक्षा असंतुलन को जन्म दे सकती है। मानविकी, साहित्य, दर्शन और इतिहास भी महत्वपूर्ण हैं, विशेषतः नैतिक और सामाजिक दृष्टि से समृद्ध करने के लिए। भारतीय शिक्षा को इन सभी दृष्टियों से सुदृढ़ किया जाना चाहिए।
प्रति कुलपति ,वेक्टेश्वरा विवि अमरोहा
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