नेताओं को बौना बनाती उनकी संकीर्णता
- विश्वनाथ सचदेव
भूल जाना आदमी की फितरत है। आदमी अच्छी बातें भी भूल जाता है, और बुरी बातें भी। बुरी बातों को भूल जाना तो अच्छी बात है, पर कुछ अच्छी बातों को भूल जाना अच्छा नहीं है। ऐसी ही अच्छी बात वर्ष 1965 की भारत-पाक लड़ाई है, जिसमें भारत ने पाकिस्तान को मात दी थी। पता नहीं कितनों को याद होगा कि उस लड़ाई में अब्दुल हमीद नाम का एक भारतीय सैनिक भी था, जिसने पाकिस्तानी टैंकों को नष्ट करके हमारी जीत को संभव बना दिया था। तब क्वार्टर मास्टर अब्दुल हमीद ने हमें जिता तो दिया, पर अपनी जान की कीमत देकर। कृतज्ञ राष्ट्र ने उस जांबाज शहीद को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया था।
इस शहीद का जन्म उत्तर प्रदेश के दुल्लहपुर नामक गांव में हुआ था। गांव वालों ने अपने इस सपूत के सम्मान में गांव के स्कूल का नाम वीर अब्दुल हमीद उच्च प्राथमिक विद्यालय रखा था। बरसों से यह नाम गांव की एक पहचान बना हुआ था। कुछ ही अर्सा पहले स्कूल का नाम बदल दिया गया– नया नाम पीएम श्री कंपोजिट विद्यालय धामपुर कर दिया गया। क्यों बदला गया, किसी ने नहीं बताया। बस बदल दिया!
नाम बदलने की यह अकेली घटना नहीं है। कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के गाजीपुर से मऊ को जोड़ने वाली सड़क पर बने एक द्वार का नाम ऐसे ही बदल दिया गया था। ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान के नाम का यह द्वार बुलडोजर चला कर गिरा दिया गया। मुख्तार अहमद अंसारी के नाम पर बने एक कॉलेज की दीवारें गिरा देने वाला समाचार भी हाल ही का है। यह बात भुला दी गयी कि मुख्तार अहमद अंसारी कभी कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। आज़ादी की लड़ाई के दौरान यह पद संभालने वाले अंसारी जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी की नींव रखने वालों में थे।
नाम बदलने का यह सिलसिला अब नया नहीं लगता। चौंकाता भी नहीं। पिछले दो दशकों में न जाने कितनी जगह के नाम बदले गये हैं। ज़्यादातर नाम मुसलमानों के हैं। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों? नाम बदलने से इतिहास नहीं बदलता। औरंगजेब ने भले ही अत्याचार किये हों, पर वह वर्षों तक इस देश में शासन करता रहा, यह हकीकत तो अपनी जगह है। फिर, हम क्यों भूल जाते हैं कि किसी औरंगजेब को याद करने का मतलब उन अत्याचारों की भी याद दिलाता है, जिनसे हमारे इतिहास के पन्ने भरे हुए हैं। ऐसी बातों को याद रखना इसलिए भी ज़रूरी है कि इन्हें दुहराया न जाये।
बहरहाल, जगहों के नाम बदलना कोई नयी बात नहीं है। पर इस प्रक्रिया के पीछे की मानसिकता को भी समझा जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि शहरों आदि के नाम बदलने का काम सिर्फ भाजपा शासित राज्यों में ही हो रहा है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, द्रमुक आदि पार्टियों ने भी अपने-अपने शासन काल में इस तरह नाम बदले हैं। सच्चाई यह है कि अक्सर यह बदलाव राजनीतिक स्वार्थ का परिणाम होते हैं। अपने-अपने हितों के लिए हमारे राजनीतिक दल अक्सर जगहों का नाम बदलना एक आसान मार्ग समझ लेते हैं। लेकिन, यह आसान मार्ग अक्सर राष्ट्रीय हितों से भटका देता है, इस बात को भुलाना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।
देश में, विशेषकर उत्तर प्रदेश में नाम बदलने की जो कवायद इस समय चल रही है वह उन सबके लिए चिंता का विषय होनी चाहिए जो राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हैं। सन् 2012 से 2022 के बीच उत्तर प्रदेश में 11 जिलों के नाम बदले गये थे, और यह प्रक्रिया लगातार जारी है। इलाहाबाद का प्रयागराज होना या फैजाबाद को अयोध्या नाम दिया जाना तो फिर भी कुछ समझ आता है, पर गोरखपुर के उर्दू बाज़ार को हिंदी बाज़ार नाम देने का क्या तुक है? न जाने कब से यह विवाद चल रहा है। एक वक्त ऐसा भी आया था जब इस बाज़ार में एक तरफ की दुकानों के बोर्ड पर पता उर्दू बाज़ार लिखा होता था और दूसरी तरफ हिंदी बाज़ार। इस बाज़ार को यह नाम इसलिए दिया गया होगा कि यहां अधिकतर दुकानों पर उर्दू किताबेें बिकती थीं। किताबों की कुछ दुकानें अब भी हैं। दोनों भाषाओं की किताबें बिकती हैं यहां, शायद उर्दू की किताबों वाली दुकानें संंख्या में अधिक हों। इस उर्दू बाज़ार को हिंदी बाज़ार नाम देने की जिद क्यों? इस तरह की ज़िद से समाज जुड़ता या बनता नहीं, टूटता और बिखरता है।
उत्तर प्रदेश में एक और अभियान भी चल रहा है- उर्दू को कठमुल्ला बनाने की भाषा घोषित करने का! राज्य की विधानसभा में कार्रवाई के अवधी, बृज आदि अनुवादों की व्यवस्था की गई है। जब सदन में यह मांग की गयी कि ऐसी व्यवस्था उर्दू के लिए भी की जानी चाहिए तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा- उर्दू माध्यम से पढ़ाकर कठमुल्ले बनाये जा रहे हैं। इस पर विवाद होना स्वाभाविक था। विवाद चल भी रहा है। किसी भी भाषा के प्रति इस तरह के विचार रखना अपने आप में किसी अपराध से कम नहीं है। पर हमारे राजनेता ऐसे अपराध को राजनीतिक स्वार्थ साधने का माध्यम मानते हैं। यही नहीं, अब तो यह भी खुलेआम कहा जा रहा है कि उर्दू इस देश की भाषा ही नहीं है।
कौन बताये कि उर्दू भाषा का जन्म इसी भारत में हुआ है, उत्तर प्रदेश के शहर मेरठ के आस-पास। उर्दू के पक्ष में आवाज़ उठाने वालों को पाकिस्तान भेजने की बात करने वालों को यह कौन समझाये कि उर्दू पाकिस्तान के किसी भी हिस्से की भाषा नहीं थी। पाकिस्तान ने यह भाषा हमसे ली है। और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उर्दू को पाकिस्तान की राजभाषा बनाने के विरोध में ही बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग हुआ था। मीर, ग़ालिब, फिराक, मंटो जैसे रचनाकारों की भाषा है उर्दू। इसे कठमुल्ला बनाने वाली भाषा कहकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने वास्तव में अनुचित ही कहा है। उन्हें शायद यह भी याद नहीं, या वे याद रखना नहीं चाहते, कि वर्ष 1989 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन.डी. तिवारी ने उर्दू को राज्य की दूसरी राजभाषा घोषित किया था।
योगी आदित्यनाथ शायद यह भी भूल गये हैं कि भाषा के आधार पर राजनीति करना देश के उस संविधान का उल्लंघन करना है जिसका गुणगान वे अक्सर करते रहते हैं। उन्हें यह भी याद दिलाना पड़ेगा कि जिस भाषा को वह कठमुल्लों की भाषा कह रहे हैं, उसके शब्द हिंदी में भरे पड़े हैं। बिना उर्दू शब्दों वाली हिंदी की कल्पना करना भी मुश्किल है। बिना उर्दू शब्दों के हिंदी के पांच वाक्य लिखना अपने आप में एक चुनौती है।
हमें इस सच्चाई को समझना होगा कि किसी भी भाषा को धर्म के साथ जोड़ना अपने आप में एक अपराध है। जिस तरह हिंदी सिर्फ हिंदुओं की नहीं, भारत की भाषा है, उसी तरह उर्दू सिर्फ किसी धर्म विशेष की नहीं, पूरे भारत की भाषा है। भले ही अलग-अलग राज्यों में विभिन्न भाषाएं हों, पर हैं सब भारत की भाषाएं। हमें यह नहीं भूलना है कि हमारी भाषाओं के इस गुलदस्ते की सुंदरता इसी विविधता का परिणाम है। भाषा को राजनीति का मोहरा बनाना भी किसी अपराध से काम नहीं। कब समझेंगे हमारे राजनेता कि भाषा की राजनीति उन्हें बौना बना रही है, अपराधी भी?
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