जीवाष्म ईंधन से खतरे
इलमा अजीम
आजकल अजरबैजान की राजधानी बाकू में जीवाष्म ईंधन के उत्सर्जन पर अंकुश के लिए कॉप-29 शिखर सम्मेलन चल रहा है। इस देश में यह सम्मेलन इसलिए आयोजित है, क्योंकि यहां तापमान के लगातार बढऩे और हिमखंडों के पिघलने के चलते तटीय बस्तियां डूबने की आशंकाएं जताई जा रही हैं। अतएव यहां का बंदरगाह, तेल खनन क्षेत्र और तटीय बस्तियां कई कि.मी. दूर तक डूब जाने की आशंका है।
यह शंका तब और बढ़ गई, जबसे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चुन लिए गए हैं। क्योंकि ट्रंप जीवाष्म ईंधन के प्रबल पक्षधर रहे हैं। इसलिए वे पर्यावरण संकट को कोई खतरा न मानते हुए इसे पर्यावरणविदों द्वारा खड़ा किया गया एक हौवा भर मानते हैं। ट्रंप और उनके समर्थक नेताओं का समूह अधिकतम जीवाश्म ईंधन पैदा करने की वकालत करते रहे हैं। इधर ब्राजील में चल रहे संपन्न देशों के संगठन जी-20 में भी इस संकट से निपटने के लिए पूंजीपति देशों से आर्थिक मदद की गुहार का कोई परिणाम निकलता नहीं दिख रहा है। अतएव बाकू सम्मेलन में निराशा के चलते दुनिया के अस्तित्व पर मंडराते बहुआयामी खतरों से निपटने की उम्मीद कम ही है।
जलवायु सम्मेलन कॉप-29 में कोयले, तेल और गैस अर्थात जीवाष्म ईंधन का उपयोग धीरे-धीरे खत्म करने की पैरवी पर्यावरण विज्ञानी कर रहे हैं, जिससे बढ़ते वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक केंद्रित किया जा सके। अनेक देशों ने 2030 तक दुनिया की नवीनीकरण योग्य ऊर्जा को बढ़ाकर तीन गुना करने के सुझाव दिए हैं।
इसके अंतर्गत अक्षय ऊर्जा के प्रमुख स्रोत सूर्य, हवा और पानी से बिजली बनाना है। इस सिलसिले में प्रेरणा लेने के लिए ऊरुग्वे जैसे देश का उदाहरण दिया गया, जो अपनी जरूरत की 98 फीसदी ऊर्जा इन्हीं स्रोतों से प्राप्त करता है। लेकिन यह एक अपवाद है, हकीकत यह है कि यूक्रेन और रूस तथा इजरायल और हमास के बीच चलते भीषण युद्ध के कारण कोयला जैसे जीवाष्म ईंधन से ऊर्जा उत्पादन का प्रयोग बढ़ा है और बिजली उत्पादन के जिन कोयला संयंत्रों को बंद कर दिया गया था, उनका उपयोग फिर से शुरू हो गया है।
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