जलवायु संकट और दूर होते लक्ष्य

- विजय गर्ग
जलवायु संकट दिनोंदिन गहरा रहा है। हर वर्ष गर्मी कुछ बढ़ी हुई दर्ज होने लगी है। वैश्विक ताप और इससे जुड़े हर आंकड़े लगातार बढ़ते संकट की ओर इशारा कर रहे हैं। जलवायु संकट से निपटने के लिए निर्धारित किए गए लक्ष्यों और उन्हें हासिल करने के लिए किए रहे प्रयासों के बीच बहुत बड़ा अंतर है, जो अब और बढ़ रहा है। वायुमंडल में पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने वाली गैसों की मात्रा चरम पर है। ब्लूमबर्ग के आनलाइन आंकड़ों के मुताबिक अभी वायुमंडल में कार्बन डाइआक्साइड का ग्राफ 421.44 पीपीएम तक जा पहुंचा है, जो पृथ्वी के संतुलित तापमान के लिए जरूरी (350 पीपीएम) पैमाने से 71.44 ज्यादा है।
लगभग 23 'मार्केटर रिसर्च', बर्लिन के ताजा आंकड़ों के अनुसार, हमारी वर्तमान तैयारियां पेरिस जलवायु समझौते के लक्ष्यों से बहुत पीछे हैं। यही स्थिति रही, तो पृथ्वी का औसत तापमान अगले चार साल और नौ महीने में 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। वहीं 2.0 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि को पार करने में साल का समय शेष है। यह ध्यान देने योग्य है कि ये दोनों लक्ष्य वैश्विक स्तर पर इस सदी के अंत तक के लिए, लंबे विचार-विमर्श और खींचतान के बाद, 2015 में पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते में निर्धारित किए गए थे। इसे अब तक का सबसे आशावादी समझौता माना गया था। इसके बावजूद वैश्विक तापमान में वृद्धि लगातार होती जा रही है। 'यूनाइटेड इन साइंस' की रपट तो और भी भयावह तस्वीर प्रस्तुत करती है। इसमें कहा गया है कि वर्तमान नीतियों के तहत, इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान के तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की संभावना है। यह जलवायु संकट से बचाव के लिए गंभीर चेतावनी है।


हालांकि ऐसा नहीं है कि पेरिस समझौते से पहले के एक दशक में कोई प्रभावी काम नहीं हुआ। जब यह समझौता 2015 में लागू हुआ, उस समय अनुमान था कि 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा सोलह फीसद बढ़ेगी, लेकिन इस दौरान किए गए वैश्विक प्रयासों का ही परिणाम है कि 2030 तक यह अनुमानित वृद्धि घट कर तीन फीसद तक आ गई है। फिर भी यह प्रयास अभी भी पर्याप्त नहीं है। पेरिस जलवायु समझौते के अनुसार, पृथ्वी के बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित करने के लिए 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में क्रमशः 28 और 42 फीसद की कमी होनी चाहिए थी। मगर हम अब भी उत्सर्जन कम करने के बजाय उसमें कम से कम तीन फीसद की वृद्धि की राह पर हैं।
अगर जलवायु परिवर्तन के कारणों और इसके प्रभावों पर नजर डालें, तो हर स्तर पर न केवल एक असमान व्यवस्था जिम्मेदार दिखती है, बल्कि इसका प्रभाव भी वैश्विक स्तर पर अलग-अलग दिखाई देता है। सामान्यतया यह कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव उन लोगों या क्षेत्रों पर पड़ता है, जिनका इसमें योगदान बहुत कम या नगण्य होता है। यह समझ जलवायु विमर्श की शुरुआत से ही बननी शुरू हो गई थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1972 में आयोजित स्टॉकहोम सम्मेलन में पर्यावरणीय क्षरण को गरीबी के नजरिए से देखने की वकालत की थी।
मौजूदा जलवायु संकट और पर्यावरण क्षरण का स्वरूप व्यापक और वैश्विक है, लेकिन उससे निपटने की आर्थिक क्षमता प्रत्येक देश में असमान विकास की वजह से अलग-अलग है। इस असमानता के कारण, पिछले पांच दशकों में कई समझौते किए गए और अनेक बैठकें आयोजित की गई, लेकिन ओजोन परत के छिद्र को छोड़ कर किसी भी क्षेत्र में प्रभावी कदम नहीं उठाए जा सके। इसके साथ-साथ, बढ़ते जलवायु संकट में पश्चिमी या विकसित देशों का योगदान अधिक रहा है, इसलिए उनकी जिम्मेदारी भी उसी अनुपात में होनी चाहिए, लेकिन मौजूदा वैश्विक संदर्भ में ऐसा नहीं दिखता।
वैश्विक परिदृश्य में पारदर्शिता बढ़ने के बावजूद, सभी देशों के बीच 'क्षमता के अनुसार साझा, लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों' के सिद्धांत पर केवल सैद्धांतिक सहमति बनी है। इस सिद्धांत को व्यावहारिक रूप में लागू करने में विकसित देश किसी भी प्रकार की संजीदगी नहीं दिखा रहे हैं। वहीं, विकासशील देशों, जैसे भारत और ब्राजील, की प्राथमिकताएं अपनी विशाल जनसंख्या को बुनियादी संसाधन मुहैया कराने पर केंद्रित हैं। दूसरी ओर, गरीब देश, विशेषकर समुद्री किनारों पर बसे या द्वीपीय देश, मौजूदा वैश्विक आर्थिक तंत्र के शिकार बन रहे  और जलवायु संकट का सबसे अधिक दंश झेल रहे हैं। मौजूदा जलवायु संकट पर सबसे अधिक प्रभाव आर्थिक नीतियों का है, विशेषकर तब जब पेरिस जलवायु समझौते के तहत उत्सर्जन को कम करने के लिए 2030 और 2050 के स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। किसी भी आर्थिक गतिविधि पर लागू कर की दर या उसमें दी गई छूट इस बात का संकेत देती है कि जलवायु संकट से निपटने के हमारे प्रयास कितने प्रभावी हैं। इसका कारण यह है कि हर आर्थिक गतिविधि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वैश्विक तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार उत्सर्जन से जुड़ी से होती । मसलन, आज भी जीवाश्म ईंधन ऊर्जा का सबसे सस्ता और सुलभ स्रोत है और इसके उत्पादन और उपयोग पर अभी भी सरकारी मदद दी जा रही है, जो स्पष्ट रूप से जलवायु संकट को बढ़ावा देने वाली नीति है। विकासशील देश इसी व्यवस्था पर निर्भर हैं, क्योंकि उनके पास हरित ऊर्जा विकसित करने के लिए न तो पर्याप्त संसाधन हैं और न ही विकसित देशों से तकनीकी सहायता और आर्थिक साधन मिल रहे हैं।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि जलवायु संकट में मौजूदा वित्तीय व्यवस्था, प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजंसी, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन और अन्य संस्थाओं के दशकों से चले आ रहे आग्रह के बावजूद, कार्बन उत्सर्जन बढ़ाने वाली परियोजनाओं को अनुदान दे रही है, जबकि स्थिति इसके विपरीत होनी चाहिए थी। देश की राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियां, जिनमें औद्योगिक क्षेत्र का दबाव समूह या 'कारपोरेट लाबी' भी शामिल है, ऐसी वित्तीय व्यवस्था के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है, कार्बन उत्सर्जन को प्रोत्साहित करती है।
वैश्विक दक्षिण के देशों में कारपोरेट का व्यवहार एक परजीवी के समान है, जो सार्वजनिक धन को विकास की आवश्यकताओं जैसे गरीबी और पिछड़ेपन की आड़ में अनुदान के रूप में जलवायु संकट से संबंधित परियोजनाओं में झोंक कर मुनाफा कमा रहा है। 'एक्शन ऐड' की मौजूदा रपट अधिकांश देशों, विशेषकर वैश्विक दक्षिण के देशों में, सार्वजनिक वित्तीय व्यवस्था पर कारपोरेट लाबी के प्रभावी पकड़ को जिम्मेदार बताती है। इसमें विकसित देशों द्वारा पेरिस जलवायु समझौते के तहत 'जलवायु वित्त' के खोखले वादों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है।


जलवायु संकट अब अपने विकराल रूप में आ चुका है। ऐसे में कारपोरेट को अपनी जिम्मेदारियों को समझना होगा और वैश्विक समुदाय को लाबी संस्कृति पर नियंत्रण लगाना होगा, ताकि सार्वजनिक वित्त का उपयोग जलवायु संकट को कम करने और इसके प्रभावों से बचाव के लिए आवश्यक क्षमता के विस्तार में किया जा सके। विकसित देशों को भी वैश्विक ताप में अपने योगदान और असमान विश्व के निर्माण में अपनी भूमिका को स्वीकार कर 'क्षमता के अनुसार साझा, लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों' के सिद्धांत में बाधा डालने से बचना होगा।
(सेवानिवृत्त प्रिंसिपल, मलोट, पंजाब)

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