बढ़ती हिंसा चिंताजनक

इलमा अजीम 
इन दिनों जरा सी बात पर हत्या कर देने जैसी खबरें आम होती जा रहीं हैं। सवाल है कि बहुत सामान्य बातों पर ऐसे जघन्य अपराध तक कर डालने से पहले लोग एक पल के लिए इसके नतीजों के बारे में क्यों नहीं सोच पाते हैं। उनका विवेक काम करना क्यों बंद कर देता है? बीते कुछ दिनों में बहुत सामान्य बात पर पीट-पीट कर हत्या कर देने की कई घटनाएं सामने आईं, जो किसी को भी चिंता में डाल सकती हैं। इन घटनाओं ने एक बार फिर यही साबित किया है कि कुछ लोगों के भीतर बातचीत से किसी मसले का हल निकालने का विवेक नहीं बचा है और हिंसा ही उन्हें आखिरी उपाय नजर आता है।  इस तरह के मामले भी अक्सर सुर्खियों में आते हैं, जिनमें सड़क पर वाहन से हल्की टक्कर या फिर आगे निकलने की कोशिश में दो पक्षों में विवाद उभर जाता है और उसके बाद मारपीट में किसी की जान चली जाती है। समय के साथ आधुनिक और सभ्य होते समाज में उम्मीद यही की जाती है कि लोग आपसी व्यवहारों को लेकर संयत और विवेकवान होंगे। मगर यह समझना मुश्किल है कि लोगों के भीतर ऐसी असहिष्णुता और हिंसा कहां से और क्यों पैदा हो रही है कि वे बेहद मामूली बातों पर किसी की इस हद तक पिटाई करते हैं कि उसकी जान चली जाए। जिस तरह की बातों को बातचीत से सुलझा लेना चाहिए, उस पर हिंसक टकराव हो जाता है। आवेश में आकर एक सामान्य नागरिक कुछ ही देर में अपराधी बन जाता है। 


हालांकि उसके बाद होने वाली कानूनी कार्रवाई में जब हत्या के आरोपियों को अपने अपराध और होने वाली सजा का अंदाजा होता है, तब शायद उन्हें यह अहसास होता होगा कि कुछ पल के लिए अगर उन्होंने शांति से मामले से निपटने की कोशिश की होती, तो न किसी की जान जाती, न उन्हें सजा का सामना करना पड़ता। मगर अफसोस कि आज कुछ लोगों के भीतर शायद इतना भी समझ पाने का धीरज और विवेक नहीं बचा है।
स्वतंत्र पत्रकार ,मेरठ। 

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