बीच का रास्ता
 इलमा अजीम 

केंद्र सरकार ने लेटरल एंट्री के तहत नियुक्ति प्रक्रिया को रद्द कर दिया है।केंद्र सरकार ने वक्फ विधेयक व प्रसारण विधेयक के बाद अब लेटरल एंट्री मामले में से हाथ खींचकर यह संकेत देने का प्रयास किया है कि वह टकराव के बजाय बीच का रास्ता अपनाना चाहती है। कहा जाता रहा है कि लेटरल एंट्री प्रक्रिया हमारे संविधान में निहित समानता और न्याय के आदर्शों पर केंद्रित होनी चाहिए। इन भर्तियों में आरक्षण के प्रावधान न होने के मुद्दे का कांग्रेस, बसपा, सपा व राजद ने जोरदार तरीके से विरोध किया। उनकी दलील थी कि इस प्रक्रिया में सामाजिक न्याय की अवधारणा की अनदेखी की गई है। सरकार की दलील है कि लेटरल एंट्री का विचार कांग्रेस सरकार के दौरान 2005 में गठित प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों के बाद सामने आया था और यूआईडीएआई के प्रमुख समेत कई पदों पर विशेषज्ञों की सीधी भर्ती में आरक्षण प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था। दरअसल, मोदी सरकार में लेटरल एंट्री की प्रक्रिया वर्ष 2018 में आरंभ हुई थी, जब सीधी भर्तियों के लिये विज्ञापन दिए गए थे। ये नियुक्तियां अनुबंध पर तीन से पांच साल के लिये की गई। लेकिन नियुक्तियों की संख्या कम होने के कारण विवाद नहीं उठा था। इन पदों के लिये राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों, शोध संस्थानों, विश्वविद्यालयों तथा निजी क्षेत्र में इस पद से जुड़ा अनुभव रखने वाले लोग आवेदन कर सकते हैं। तर्क दिया गया कि ये नियुक्तियां डेप्यूटेशन जैसी हैं, जिसमें आरक्षण अनिवार्य नहीं है। बहरहाल, इस मुद्दे के विरोध के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं, राजग सरकार ने भी आरक्षण विरोधी छवि बनने की आशंका के बीच इस फैसले से हाथ खींचा है। बहरहाल, प्रशासनिक व्यवस्था में विषय विशेषज्ञों का जुड़ना अच्छी बात है लेकिन इस प्रक्रिया में अधिकतम पारदर्शिता की जरूरत है।

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