संतुलन की चुनौती
इलमा अजीम
इजरायली सेना के फिलिस्तीनी इलाकों पर ताबड़तोड़ सैन्य हमलों के कारण इजरायल-हमास बातचीत में आ रही बाधाओं और नवनिर्वाचित ईरानी राष्ट्रपति मसूद पेजेशकियान के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के बाद तेहरान में हमास के शीर्ष नेता इस्माइल हानिया की नाटकीय हत्या से पश्चिम एशिया में तनाव लगातार बढ़ रहा है। दूसरी ओर, इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू द्वारा अमरीका को अपने पक्ष में घसीटने का हर हथकंडा अपनाया जा रहा है जिससे युद्ध के बादल मंडराने लगे हैं। इसी कारण, एयर इंडिया सहित सभी अंतरराष्ट्रीय एयरलाइनों ने तेल अवीव की उड़ानें कम या रद्द कर दी हैं। वर्तमान में भारत की पश्चिम एशिया नीति में आर्थिक कारक काफी अहम हो गए हैं। यदि अब भारत संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और सऊदी अरब जैसे देशों से व्यापारिक और निवेश भागीदारी पर अधिक ध्यान देने लगा है, तो सुरक्षा के दृष्टिकोण से भारत के लिए ईरान भी एक महत्त्वपूर्ण देश है। ईरान दो प्रमुख मोर्चों पर भारतीय रणनीतिक सोच का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। पहला, पश्चिम एशिया एवं अफगानिस्तान तक भारत की पहुंच आसान बनाने का जरिया। दूसरा, भारत की शिया आबादी पर ईरान की विचारधारा का संभावित असर। दरअसल, पश्चिम एशिया की विस्फोटक भू-राजनीति केवल भारतीय विदेश नीति के विकल्पों तक सीमित नहीं है, यह भारत के घरेलू विमर्श में भी शामिल है। क्षेत्र में सैन्य तनाव बढऩे से रणनीतिक संतुलन बनाए रखना चुनौतीपूर्ण व दुविधापूर्ण होता जा रहा है। पिछले कुछ समय में कई जुलूसों के दौरान फिलिस्तीनी एकजुटता एवं इजरायल विरोधी भावनाओं का प्रदर्शन देखा गया है। यहां तक कि भारत में कार्यरत इजरायली कंपनियों के बहिष्कार का आह्वान भी किया गया। कुछ साल पहले भी ईरान के लोकप्रिय जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या के विरोध में रैलियां निकाली गई थीं। ये तथ्य इसलिए चिंताजनक है क्योंकि इनका संबंध पाकिस्तान-प्रेरित आतंकवाद से न होकर भारत की मुस्लिम राजनीति की वैचारिक सोच से है। यह सही है कि इसका राजनीतिक असर फिलहाल नगण्य है, फिर भी यथास्थिति बनाए रखना अहम है ताकि इस्लामिक चरमपंथ की किसी धारा के भारत में उत्थान को रोका जा सके। जिस प्रचंडता से इस्लामिक कट्टरपंथियों ने बांग्लादेश में वापसी की है वह वैसे भी भारत के लिए नया सिरदर्द बन गया है। इसी पृष्ठभूमि में ईरान और इजरायल में बढ़ता तनाव भारत के लिए गंभीर चिंता का विषय है। भारत के लिए यह जरूरी हो गया है कि वह ईरान की बढ़ती क्षेत्रीय सैन्य उपस्थिति और मारक क्षमताओं को पहचाने और किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार रहे। ईरान लम्बे समय से अनेक शिया गुटों, जिसमें हिजबुल्लाह प्रमुख रहा है, के जरिए अपनी क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा कर रहा है। ईरानी प्रभाव, हमास और इस्लामिक जिहाद जैसे फिलिस्तीनी समूहों तक भी फैल चुका है। धीरे-धीरे ईरान-समर्थक प्रॉक्सी गुटों की ताकत में घातक इजाफा हुआ है। इनमें यमन में हूती और इराक में पॉपुलर मोबिलाइजेशन फोर्स (अल-हशद अश-शबी) शामिल हैं। अगर पश्चिम एशिया में युद्ध आरंभ होता है तो वह सीमित नहीं रहेगा क्योंकि ईरान मिसाइलों को लॉन्च करने के लिए अपने प्रॉक्सी गुटों का उपयोग अवश्य करेगा। तब ईरानी ड्रोन और मिसाइलों किस-किस दिशा में रुख करेंगी, इसका तो अनुमान ही लगाया जा सकता है। जाहिर है, ईरान के प्रति एक गंभीर दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें कूटनीतिक, सैन्य और विचारधारात्मक तत्वों का समावेश हो।
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