वायनाड के सबक
इलमा अजीम
हाल के वर्षों में देशभर में घटित आपदाओं का बदतर होता प्रभाव चिंताजनक है। वायनाड त्रासदी एक ऐसा चरम मामला है, जब धरती की सतह कुछ कारकों की वजह से बना दबाव नहीं झेल पाई। मसलन बुनियादी ढांचा विकास और अत्यधिक बारिश। लंबे समय से, विकास प्रक्रिया बनाते वक्त पर्यावरणीय संवेदनशीलता की अहमियत का ध्यान नहीं रखा जाता। लेकिन मौसम में आ चुका बदलाव अब एक हकीकत है। और समस्या की तीव्रता देश के अनेक हिस्सों में आफत का रूप धरकर टूट रही है। पिछले सालों से महासागरों का औसत तापमान निरंतर बढ़ रहा है, इसकी वजह से जल और थल से वाष्पीकरण अधिक हो रहा है, नतीजतन अधिक गहरे बादल बनने लगे हैं, जिसके चलते बहुत भारी बरसात होती है। इससे जल भराव, सैलाब और भूस्खलन होता है। पश्चिमी घाट के कई भागों में यही हो रहा है। वायनाड त्रासदी कई कारकों के इकट्ठा होने का परिणाम है –अरब सागर में गहरे मेघ बनना, बादल फटना, मिट्टी की जल सोखन शक्ति संतृप्त होना, नाजुक भाग में अतिक्रमण एवं पर्यावरणीय क्षरण इत्यादि। बारिश का असामान्य और चरम होना- इस इलाके में एक ही दिन में 150 एमएम से अधिक बरसात दर्ज हुई। इस भारी बारिश का एक परिणाम भूस्खलन रहा। बेशक भौतिक कारकों को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता किंतु जोखिम को विस्तृत भूवैज्ञानिक जांच, गहन इंजीनियरिंग ज्ञान और भू-उपयोगिता प्रबंधन पर कड़े नियंत्रण के जरिए काफी कम किया जा सकता है। दुर्भाग्य से बुनियादी ढांचा योजना बनाते वक्त इन पहलुओं को अक्सर ध्यान में नहीं रखा जाता। इसके परिणाम में 300 से अधिक लोगों की जानें गईं और अनेक बाशिंदे अभी भी लापता हैं। ज्यादातर मानव-जनित भूस्खलनों से बचा जा सकता है यदि निर्माण स्थल की गहन भूमि जांच और सिविल इंजीनियरिंग एवं नियामक मानकों का पूरी तरह पालन किया गया हो। जोखिम को प्रभावशाली रूप से कम करने के लिए भूस्खलन पैदा करने वाले प्राकृतिक एवं मानव जनित कारकों की पूरी तरह समझ होना जरूरी है। भले ही चेतावनी और राहत तंत्र भी स्थापित हो, लेकिन जैविकता को हुआ नुकसान फिर से नहीं भरा जा सकता। अतएव, इसके नतीजे होकर रहेंगे।
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