आखिर कहां जाएं...!

 इलमा अजीम 

हर रोज बलात्कार के केस आ रहे हैं और सरकारें फास्ट ट्रैक कोर्ट के आश्वासन देती रहती हैं। पीडि़ता को इंसाफ मिलना बहुत दूर की कौड़ी है। बहरहाल अब मौजूदा संदर्भ में सर्वोच्च अदालत के अंतिम फैसले की प्रतीक्षा है, लेकिन आदमी की ‘पाशविक हवस’ अब दरिंदगी की हदें भी पार कर चुकी है। 
हम बलात्कारियों, हत्यारों को इनसान नहीं मान सकते, वे ‘जानवर’ से भी अधिक खौफनाक हैं। अब हालात ये बन गए हैं कि बेशक बेटी 3-4 साल की हो और स्कूल जाना शुरू ही किया हो। बेटी बड़ी होकर कॉलेज में पढ़ती हो अथवा गहन पढ़ाई करके डॉक्टर बनी हो और एक सरकारी अस्पताल में कार्यरत हो। बेटी कहीं जाने के लिए राज्य परिवहन की बस में बैठी हो या बाजार में किसी काम से गई हो। उम्र 60 पार कर चुकी हो और विधवा महिला हो! अब ऐसी बेटियां, नाबालिग या बालिग लड़कियां अथवा उम्रदराज विधवा महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। वे सामूहिक दुष्कर्म का शिकार हो रही हैं। आखिर यह देश कैसा बन गया है? कोई भी राज्य इन जघन्य, बर्बर अपराधों से अछूता नहीं है। अभी तो सर्वोच्च अदालत के सामने वे ही तथ्य और आंकड़े आएंगे, जो पुलिस ने दर्ज किए होंगे। जिन्हें डर, खौफ के कारण दर्ज नहीं कराया गया अथवा पुलिस ने टालमटोल कर अपराध पर मिट्टी डाल दी, उन अपराधों का संज्ञान कौन लेगा? 2012 के नई दिल्ली के ‘अमानवीय’ निर्भया कांड के बाद भी 3.33 लाख बलात्कार किए गए हैं, जबकि 1971-2022 के लंबे कालखंड में 8.23 लाख बलात्कार के केस दर्ज किए गए थे। बलात्कार किस गति और अनुपात से बढ़ रहे हैं, आश्चर्य होता है। क्या देश में बेटियां, बहनें और महिलाएं सिर्फ ‘बलात्कार की वस्तु’ बनकर रह गई हैं? क्या अब वे ‘देवी’ नहीं रहीं? सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीशों ने ऐसे हालात, परिवेश, अपराधों पर चिंता जताई है। उससे क्या होगा? कल ही 32 लंबे सालों के बाद औरतों को इंसाफ मिला है-आधा, अधूरा। 1992 में 100 लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था। विशेष अदालत ने सिर्फ 6 अपराधियों को आजीवन कारावास की सजा दी है। मौजूदा संदर्भों में क्या न्याय मिलेगा, देखते हैं।

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