लोकतंत्र हो मजबूत
इलमा अजीम 
संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के बारे में टिप्पणी करते समय सतर्कता बरतने की जरूरत है। चुनावों के बाद जैसी उम्मीद की जा रही थी, लगता है हमारे लोकतंत्र की गाड़ी उस दिशा में नहीं जा रही। उम्मीद यह की जा रही थी कि लोकसभा चुनावों में जनादेश का सम्मान करते हुए पक्ष-प्रतिपक्ष मिलकर संसदीय परंपराओं को आगे ले जाने की दिशा में बढ़ेंगे। लेकिन, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान सोमवार को लोकसभा में जो कुछ हुआ, उससे तो लगता है कि संसद में पक्ष-प्रतिपक्ष में टकराव के नए दरवाजे खुल रहे हैं। धन्यवाद प्रस्ताव पर प्रतिपक्ष के नेता के तौर पर पहली बार बोलते हुए राहुल गांधी ने कुछ ऐसे मुद्दे उठाए जिनसे बचा जा सकता था। बीस साल से सांसद के रूप में सदन का हिस्सा बन रहे राहुल गांधी ने स्पीकर ओम बिरला तक को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया। भगवान शिव की तस्वीर दिखाकर उन्होंने मामले को दूसरी दिशा में मोडऩे की कोशिश भी की। सवाल यह उठता है कि राजनीतिक मुद्दों को बीच में लाने के बजाय क्या यह उचित नहीं था कि राहुल गांधी धन्यवाद प्रस्ताव के केन्द्र में ही अपनी बात रखते। वैसे भी राजनीतिक मुद्दों पर बोलने के लिए राहुल के पास भी पूरे पांच साल का समय है। यह बात सही है कि राहुल के भाषण को लेकर राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से अलग-अलग निहितार्थ निकालेंगे। इस मुद्दे पर आने वाले दिनों में राजनीति भी गरमाएगी। लेकिन क्या यह राजनीति इस समय प्रासंगिक मानी जा सकती है? वह भी तब, जब बीते छह महीने से देश राजनीति के दांवपेंच ही देखता आ रहा है। इन दांवपेंचों को देख-परखकर ही सभी दलों को जनादेश मिला है। जनादेश एनडीए को सत्ता में और इंडिया गठबंधन को विपक्ष में बैठने के लिए है। विपक्ष को पूरा अधिकार है कि वह मुद्दों के आधार पर सत्ता पक्ष को सदन से लेकर सड़क तक घेरे। जनता की आवाज को तरीके से उठाए भी। आज भाजपा सत्ता में है और कांग्रेस विपक्ष में। लंबे समय तक कांग्रेस सत्ता में रही और भाजपा विपक्ष में। हर दल को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होना चाहिए। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के बारे में टिप्पणी करते समय सतर्कता बरतने की जरूरत है। 

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