चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता के लिए सार्थक पहल

- विश्वनाथ सचदेव
चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था जब से हुई थी, उसके औचित्य पर सवालिया निशान लग रहे थे। शंका इस बॉन्ड को लेकर नहीं, इसके बारे में जनता को जानकारी न देने को लेकर थी। यह तो देश के मतदाता को बताया जा रहा था कि कितने के बॉन्ड बिके और किस पार्टी के हिस्से में कितने रुपये आये, पर यह बताने से लगातार इंकार किया जाता रहा कि पैसा दिया किसने। यह जानकारी यदि मतदाता को मिल जाती तो शायद उसे यह भी समझ आ जाता कि बॉन्ड खरीदने वाले ने किसको क्या दिया और उसके बदले में उसे क्या मिला? यही बात थी जिसे छिपाया जा रहा था। लेकिन क्यों? क्यों मतदाता को यह पता न चले कि किस धन्नासेठ ने किस राजनीतिक दल को कितना दिया है? एक तरफ तो हमने जानकारी के अधिकार को जनतांत्रिक मूल्य के रूप में स्वीकारा है, और दूसरी ओर राजनीतिक दलों और कार्पोरेट के आर्थिक रिश्तों पर इस तरह पर्दा डालने की कोशिश का क्या मतलब निकाला जाये?
मतलब साफ है। इस व्यवस्था के चलते राजनीतिक दल, विशेषकर सत्तारूढ़ दल के लिए अपने आर्थिक व्यवहार की अनियमितता को छिपाना आसान हो रहा था। जनतांत्रिक मूल्यों की लड़ाई लड़ने वाले इस ‘आसानी’ का विरोध कर रहे थे। मामला अदालत में पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि मतदाता को यह जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है कि किसने किस राजनीतिक दल को कितना पैसा दिया है। इसके साथ ही न्यायालय ने चुनावी बॉन्ड जारी करने वाले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को एक निश्चित तिथि तक यह सारी जानकारी देने का निर्देश भी दिया था। लेकिन आश्चर्य की बात है कि उस तिथि के एक दिन पहले स्टेट बैंक ने न्यायालय को यह बताया कि जानकारी उपलब्ध कराने के लिए उसे अधिक समय की आवश्यकता है। उसने ‘अधिक समय’ को भी परिभाषित किया– बैंक ने जानकारी देने के लिए उतना समय मांगा था, जितने में देश में आम चुनाव हो जाते। मतलब साफ था- बैंक चाहता था कि उक्त जानकारी चुनाव के बाद दी जाये ताकि सत्तारूढ़ दल को होने वाला संभावित खतरा टल जाये। यह निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता कि जानकारी किसी दल विशेष के लिए ही खतरा उत्पन्न करती, पर यह अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि यह खतरा सत्तारूढ़ दल के लिए अधिक होता। इसीलिए स्टेट बैंक की इस पेशकश को सत्तारूढ़ दल के बचाव की एक कोशिश समझा गया। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि चुनावी बॉन्ड के बारे में जानकारी उपलब्ध न कराने के लिए स्टेट बैंक बहानेबाजी ही कर रहा था। उच्चतम न्यायालय ने इस बहानेबाजी को समझा और स्पष्ट शब्दों में बैंक को निर्देश दिया कि एक दिन में ही सारी जानकारी चुनाव-आयोग को उपलब्ध कराये और चुनाव-आयोग को भी निर्देश दे दिये गये कि वह भी एक निश्चित दिन तक यह जानकारी देश के मतदाता तक पहुंचा दे। बैंक ने शीर्ष अदालत के निर्देश पर आयोग को जरूरी जानकारी उपलब्ध करा दी है।
न्यायालय की इस कार्रवाई और निर्णय को जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की कोशिश के रूप में समझा जा रहा है, हालांकि ऐसे लोग भी हैं जो यह मानते है कि उच्चतम न्यायालय अनावश्यक हस्तक्षेप कर रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि ऐसे हस्तक्षेप की आवश्यकता भी थी और प्रतीक्षा भी।
चुनावी बॉन्ड के बारे में बरती जा रही गोपनीयता ही सवालों के घेरे में नहीं थी, कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को दिये जाने वाले चंदे की सीमा का समाप्त किया जाना भी संदेह उत्पन्न करने वाला था। पुरानी व्यवस्था के अनुसार कंपनियां अपने लाभ का सात प्रतिशत ही चुनावी चंदे के रूप में दे सकती थीं, यह सीमा हटाने का मतलब था कंपनियों को यह अवसर देना कि वे सम्बन्धित राजनीतिक दल को मनचाहा पैसा दे सकें। इसे रिश्वत के रूप में समझा जाना स्वाभाविक हो। शायद यही सब देखते हुए न्यायालय ने चुनावी बॉन्ड के संदर्भ में बरती जाने वाली गोपनीयता को अनावश्यक और अजनतांत्रिक माना। अब यह समझा जा सकता है कि जनता को यह पता चल सकेगा कि किस कंपनी या व्यक्ति ने किस पार्टी को कितना चंदा दिया और संभव है यह भी पता चल जाये कि इस चंदे के बदले में कोई अनुचित काम तो नहीं हुआ।
बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने में मददगार सिद्ध होगा। लेकिन, इस संदर्भ में जो कुछ हुआ है, उससे यह सवाल तो उठता ही है कि स्वायत्त सरकारी एजेंसियां सरकार के दबाव में तो काम नहीं कर रहीं? आखिर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने जानकारी देने के लिए इतना अधिक समय क्यों मांगा? क्या कोई दबाव था उस पर? आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई जैसी शक्तिशाली एजेंसियों पर सरकारी दबाव में काम करने के आरोप लगते ही रहते हैं, ऐसा नहीं है कि बैंकों पर सरकारें दबाव नहीं डालती रहीं, पर चुनावी बॉन्ड के मामले में स्टेट बैंक जैसी समर्थ संस्था पर सरकारी दबाव का ऐसा आरोप लगना जागरूक नागरिकों के लिए अतिरिक्त चिंता का विषय होना चाहिए। चुनावी बॉन्ड को लेकर बरती गयी अनावश्यक गोपनीयता के बाद बैंक पर सत्तारूढ़ दल के कथित दबाव का संदेह होना एक गंभीर बात है। जैसा कि कहते हैं, न्याय होना ही नहीं चाहिए, होते हुए दिखना भी चाहिए, स्वायत्त संस्थाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने अधिकारों-कर्तव्यों के प्रति सजग होंगी। अतिरिक्त समय की मांग करके, और चुनावों के समय के साथ अवधि के जुड़ने से उत्पन्न संदेह न होता तो बेहतर था।
यहीं, चुनाव-आयोग के गठन का मसला भी कम महत्वपूर्ण नहीं। पहले उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और लोकसभा में नेता विपक्ष मिलकर आयोग के सदस्यों का चुनाव करते थे, लेकिन अब संसद में बहुमत का सहारा लेकर सरकार ने नया कानून बनाया है, मुख्य न्यायाधीश चयन-समिति में नहीं रहे, उनकी जगह प्रधानमंत्री द्वारा किसी मंत्री को उसमें शामिल किया गया है। यह स्थिति भी संदेह और भ्रम उत्पन्न करने वाली है। चयन समिति में मुख्य न्यायाधीश का न होना समिति को कमज़ोर ही बनाता है। अब जो स्थिति है उसमें प्रधानमंत्री को मनमानी करने का अवसर मिल जाता है। इस तरह के मामले में ऐसी मनमानी को उचित तो नहीं ही कहा जा सकता। जो अनुचित है, उसका समर्थन भी कैसे हो?


जनतांत्रिक व्यवस्था में पारदर्शिता बहुत महत्वपूर्ण है, उसकी रक्षा होनी ही चाहिए। तभी इस व्यवस्था में भरोसा बनेगा, बढ़ेगा। सत्तारूढ़ पक्ष का दायित्व इसमें बड़ा है; पर विपक्ष और मतदाता की जागरूकता भी उतनी ही आवश्यक है।

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