महिला दिवस: विचार परत दर परत
- कृष्ण कुमार निर्माण
छोटी कक्षाओं में जब पढ़ा करते थे, तब रिक्त स्थान भरना बड़ा मुश्किल माना जाता था। कई बार तो ऐसे प्रश्नों में असमंजस की स्तिथि बन जाया करती थी। पर आज के राजनीतिक दौर को देखकर रिक्त स्थान भरना हो तो सिर्फ एक शब्द ही मुफीद लगता है और वह है वोट/वोट बैंक। जिन मुद्दों पर अच्छा-खासा हंगामा हो रहा है, जरा उनके खालिस्तान भरिए कि संदेशखाली जुर्म के मुजरिम को सजा मिलेगी या नहीं?
मणिपुर के शर्मसार करने वाले कांड के दोषी को फाँसी मिलेगी क्या?हाथरस की बिटिया को इंसाफ मिला क्या? उन्नाव की पीड़िता की आत्मा क्या कहती होगी? कुश्ती में जिन लड़कियों के साथ जो घिनौना कार्य हुआ, उसे करने वाला कब जेल जाएगा? इससे भी आगे बढिए और देखिए कि वो संदेशखाली-संदेशखाली करेंगे मगर तुम मणिपुर पर अड़े रहना।वो मणिपुर-मणिपुर करेंगे मगर तुम संदेशखाली पर अड़े रहना। वो हाथरस-हाथरस अलापेंगे मगर तुम राजस्थान पर अड़े रहना।वो उन्नाव का जिक्र करें तो तुम कुछ ओर जिक्र कर देना।बिल्किस बानो के सजायाफ्ता दोषियों को राष्ट्रीय पर्व पर रहा करना ताकि उनका स्वागत-सत्कार हो सके। तुम चिल्लाते रहना कि ये अनुचित है, अन्यायपूर्ण है मगर वो तुम्हें कहीं और उलझा देंगे।
ये सब बातें महिला दिवस पर उन तमाम पक्ष-विपक्षीय नेता से चीख-चीखकर पूछ रही हैं कि क्या हम सिर्फ वोट बैंक है या हमें न्याय मिलेगा?और कह रही हैं कि ये जो तुम्हारा तू-तू,मैं-मैं का खेल है,ये उससे भी ज्यादा कचोटता है,दर्द देता है और फिर से हमारा बलात्कार करता है।सच में ऐसा ही हो रहा है।न्याय दिलाने के नाम पर वोट-बैंक तैयार किया जाता है,इनके द्वारा भी, उनके द्वारा भी...।कितना घिनौना है ना यह सब...?चलिए आगे बात करते हैं कि महिला आरक्षण बिल पास हो गया है। ताली बजाओ, मंगल गाओ क्योंकि अब आधी आबादी लोकतंत्र के मंदिरों में जाकर अपनी आवाज बुलंद करेंगी मगर ग्रामीण भारत की भरथो, धापो, मंगलों, रेशमा, भतेरी, श्यामो, फूलो पूछ रही हैं कि क्या उनका नंबर भी आएगा या फिर सब कुछ स्मृति, सोनिया, बांसुरी, मीनाक्षी, ममता, माया ले जाएगी? कितना अन्याय है ये आरक्षण के नाम पर क्योंकि गोबर पाथने वाली महिला कब सशक्त हुई है भला?
और तो और यह भी गजब कि अभी महिला आरक्षण बिल पास हुआ है मगर लागू नहीं। वो तो बेचारी आज भी बहुत बुरी हालत में है। पिटती रहती है, अपने दारूबाज पति से मगर बोलती नहीं क्योंकि मर्दवादी युग में बोलने पर कुलटा कहा जाएगा। आज भी बेचारी जंगल से लकड़ी लाती हैं और रोटी बनाकर खाती हैं मगर आंकड़े सब कुछ हरा-हरा ही दिखाते हैं क्योंकि कभी उन महिलाओं से तो बावस्ता हुए ही नहीं। ये कैसा महिला दिवस है कि नेता लोग नचनिया तक बोल देते हैं। ये कैसा महिला दिवस है कि महिला दिवस के नाम पर करोड़ों फूंक कर स्वाहा कर दिए जाते हैं मगर बेचारी फत्तो, संतरों के हाथ में कुछ नहीं आ पाता और विज्ञापन बोलता है कि देश बदल रहा है, महिलाएं सशक्त हो रही हैं। पारिवारिक विवाद के कितने खट्टे अनुभवों से हर रोज गुजरती हैं महिलाएं, और अगर यह पारिवारिक विवाद भूलकर भी दहलीज से बाहर लेकर आ गई तो समझो स्यापा हो गया।
ये कैसा सशक्तिकरण है कि महिला होने पर दिहाड़ी भी कम दी जा रही है। यकीन नहीं आता तो एक बार देश भर की आशा वर्कर,मिड-डे-मील वर्कर, आंगनबाड़ी वर्कर, हैल्पर, परियोजना के तहत काम कर रही स्वास्थ्य कार्यकर्ता से पूछकर देख लो। यहाँ भी सब्र न आए तो फिर सर्वे करो और देखो। लानत है कि हम फिर भी महिला दिवस पर बड़े-बड़े भाषण देते हैं। यहाँ तक कि इनके प्रेम पर इतना बंधन है कि उफ!पूछिए मत, और तो और इनके पढ़ने की उम्र भी ये खुद तय नहीं कर सकती,ना ही कॉलेज या कुछ और....।
हो सकता है कि कुछ लोग कहें कि अब तो समय बदल रहा है मगर ध्यान रखिए चंद महिलाओं की गाथा से पूरी महिला कौम के जीवन में कोई बदलाव नहीं आता? हाँ,कुछ बदलाव होना भी अच्छा ही कहा जा सकने योग्य है मगर याद रखिए कि सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि सूरत बदलनी चाहिए।
तो आइए! मर्दवादी सोच में परिवर्तन लाएं और सिर्फ बोलों से नहीं हकीकत में महिला दिवस मनाकर बड़े स्तर पर महिला सशक्तिकरण करें। यही बेहतर होगा।
(लेखक,कवि और शिक्षविद, करनाल, हरियाणा)
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