दावों-वादों-गारंटियों की पड़ताल भी जरूरी
- विश्वनाथ सचदेव
चुनाव आयोग द्वारा आम-चुनाव की घोषणा के साथ ही चुनावी दंगल शुरू हो चुका है। जुलूस, नारे, नेताओं के बयान, रोड शो आदि का शोर जोरों से सुनाई देने लगा है। इस सबको चुनाव की विधिवत शुरुआत भले ही कह लें, पर हकीकत यह है कि अब हमारे देश में चुनाव शुरू नहीं होते, चलते रहते हैं। एक अनवरत प्रक्रिया बन गये हैं चुनाव और इस प्रक्रिया के बनने में सबसे बड़ा योगदान सत्तारूढ़ दल भाजपा और हमारे प्रधानमंत्री का है। देखा जाए तो यह स्थिति अपने आप में कुछ ग़लत भी नहीं है, आखिर चुनाव जनतंत्र का उत्सव होते हैं, और ईमानदारी से लड़ी गई चुनावी लड़ाई जनतंत्र की सफलता और सार्थकता को ही प्रमाणित करते हैं। पर हमारी हकीकत यह भी है कि चुनाव में सब कुछ कहने-करने को स्वीकार्य मान लिया गया है। सिद्धांतहीन राजनीतिक समझौते और आधारहीन दावे और खोखले वादे दुर्भाग्य से हमारे जनतंत्र की एक पहचान बनते जा रहे हैं। इसलिए ज़रूरी है कि जनता इन दावों-वादों, गारंटियों की पड़ताल करती रहे।
ऐसा ही एक दावा विकास का है। इसमें कोई संदेह नहीं कि विकास के मोर्चे पर हमने कई सफलताएं अर्जित की हैं। देश में सड़कों का निर्माण जिस गति से हो रहा है, वह अपने आप में किसी उपलब्धि से कम नहीं है। रेल- मार्गों का विकास और रेलगाड़ियों की संख्या में वृद्धि भी ऐसी ही एक सफलता है। रक्षा और वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में भी हम लगातार तरक्की कर रहे हैं। चंद्रमा और मंगल तक की हमारी उड़ानें किसी भी भारतीय के मन में गर्व का अहसास जगा सकती है। विकास के इस संदर्भ में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़े भरोसा दिलाने वाले हैं। लगभग साढ़े आठ प्रतिशत जीडीपी का आंकड़ा बहुत कुछ कहता है। लेकिन विकास की सार्थकता तभी बनती है जब यह विकास बेहतर जिंदगी में परिवर्तित हो। बेहतर जिंदगी का मतलब है हर क्षेत्र में आज बीते हुए कल से बेहतर दिखाई दे और आने वाले कल के लिए उम्मीदें जगाने वाला हो।
यह सही है कि हमारा जीडीपी एक सम्मानजनक स्तर पर है। यह भी सही है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के संदर्भ में हम दुनिया के अनेक देशों से कहीं आगे हैं। आज हमारी अर्थ-व्यवस्था दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थ-व्यवस्था है। हमारा लक्ष्य पांचवें से तीसरे पायदान पर पहुंचने का है। पर सवाल वही है–विकास की यह गति बेहतर जिंदगी में परिवर्तित हो रही है या नहीं? जनवरी, 2024 में हमारी बेरोजगारी दर 6.8 प्रतिशत थी। फरवरी में यह प्रतिशत बढ़कर आठ हो गया। थोड़ा-सा और खंगालें तो पता चलता है इस संदर्भ में ग्रामीण क्षेत्र की स्थिति और बुरी है। वहां बेरोज़गारी का प्रतिशत क्रमशः 5.8 और 7.8 था। इसमें कोई संदेह नहीं कि शहरी क्षेत्र में इस दौरान यह आंकड़ा 8.9 प्रतिशत से कम होकर 8.5 प्रतिशत हो गया था। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारा दो-तिहाई क्षेत्र ग्रामीण क्षेत्र में आता है। महंगाई के आंकड़े भी कुछ ऐसा ही चित्र प्रस्तुत करते हैं। इस संदर्भ में जिंदगी की कठिनाइयां कम नहीं हो रहीं, उल्टे बढ़ती जा रही हैं।
महंगाई और बेरोज़गारी का यह मुद्दा आम-चुनाव का बड़ा मुद्दा बनना चाहिए था। पर अभी तक विपक्ष इसे बड़ा मुद्दा बनाने में सफल नहीं हो पाया है। वास्तविकता तो यह है कि चुनावी मुद्दों के नाम पर अनावश्यक मुद्दे उछाले जा रहे हैं। एक उदाहरण देखें–मुंबई की एक सभा में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने ‘एक शक्ति’ का मुकाबला करने की बात कही। उनका आशय ग़लत ताकतों से लड़ने का रहा होगा। पर दूसरे ही दिन सत्तारूढ़ पक्ष ने इस ‘शक्ति’ को ‘शक्ति की देवी’ से जोड़ दिया। प्रधानमंत्री ने दक्षिण भारत की एक चुनावी सभा में घोषणा कर दी कि वे नारी-शक्ति की रक्षा के लिए अपनी जान तक न्योछावर कर देंगे। उन्हें महारत हासिल है इस तरह के मुद्दे लपकने में और इसका लाभ उठाने में। पिछले दो आम-चुनावों में हमने देखा था कि कैसे ‘चायवाला’ और ‘नीच’ शब्द उनके लिए चुनावी-वरदान बन गया था।
होना तो यह चाहिए कि चुनाव में सत्तारूढ़ पक्ष अपनी उपलब्धियों का लेखा-जोखा मतदाता के समक्ष रखे और विपक्ष सत्तारूढ़ पक्ष की कमियों-असफलताओं को उजागर करके बेहतर नीतियों के आधार पर वोट मांगे, लेकिन हो यह रहा है कि आकर्षक वादों और आधारहीन दावों के बल पर चुनाव लड़ा-लड़ाया जा रहा है। ऐसे में मतदाता का दायित्व बनता है कि वह सत्ता के लिए लड़ने वाले राजनेताओं और राजनीतिक दलों से उनके दावों-वादों के आधार के बारे में पूछे। उनसे कहे कि आकर्षक शब्दों और लोक-लुभावन शैली से उसे भरमाने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। और न ही राजनीतिक दलों को यह मानना चाहिए कि मतदाता उनकी मुट्ठी में है।
आज देश के मतदाता को सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों से पूछना है कि उसकी बेहतरी के लिए उसके पास क्या योजना है? विकास जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने वाली प्रक्रिया का नाम है। विकास का वास्तविक अर्थ है मानव-जीवन की गुणवत्ता में सुधार। सही मायनों में विकास तब होता है जब जीवन के हर स्तर में बेहतरी दिखे, जनता का आत्म-विश्वास बढ़े, स्वतंत्रता अपनी संपूर्णता में जीवन को संवारती दिखे। क्या ऐसा हो रहा है, यह सवाल मतदाता को अपने आप से पूछना होगा। इस प्रश्न का सम्यक उत्तर ही उसे सही के पक्ष में खड़े होने का अवसर देगा।


यह सवाल तो मतदाता के मन में उठना ही चाहिए कि यह कैसा विकास है जिसमें एक तरफ तो विश्व स्तर पर पांचवें पायदान से तीसरे पायदान तक पहुंचाने के दावे और वादे किए जा रहे हैं, और दूसरी ओर देश की 80 करोड़ जनता को मुफ्त अनाज देने की आवश्यकता पड़ रही है? आज देश के मतदाता को शक्ति का अर्थ समझने-समझाने की आवश्यकता नहीं है, ऐसी हर कोशिश को उसे भरमाने की एक चाल के रूप में ही देखा जाना चाहिए। चुनाव सही और उचित मुद्दों के आधार पर लड़े जाएंगे, तभी हमारा जनतंत्र सार्थक सिद्ध हो सकता है। मतदाता का अधिकार है कि उसके समक्ष बेहतर विकल्प प्रस्तुत किए जाएं, लच्छेदार भाषा और आकर्षक नारे शायद चुनाव जीतने में कुछ मददगार सिद्ध हो भी जाएं, पर जनतंत्र की सार्थकता का तकाज़ा है कि मतदाता को भरमाया नहीं जाये, उसे जागरूक बनाया जाये। यह जागरूकता ही जनतंत्र का औचित्य सिद्ध करती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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