सर्वधर्म-समभाव मनुष्य होने की पहली शर्त
- विश्वनाथ सचदेव
रामधुन गायी हो भले ही न गायी हो किसी ने, पर सुनी तो अवश्य होगी। ‘रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम’, यह शब्द कभी न कभी दिल से या मस्तिष्क से टकराये तो होंगे ही। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का प्रिय भजन था यह। बताया जा रहा है कि यह भजन मूलतः पंडित लक्ष्मणाचार्य ने लिखा था और उसमें ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ वाली पंक्ति नहीं थी। हो सकता है गांधी जी ने यह शब्द जोड़े हों। लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इससे न तो मूल भजन की महत्ता कम होती है और न ही मूल भजन के प्रति किसी अवमानना का कोई भाव सामने आता है। कुछ सकारात्मक जुड़ ही रहा है इस पंक्ति से। देखा जाये तो यह ‘एकम‍् सत‍् विप्रा बहुधा वदन्ति’ का ही एक रूप है। ईश्वर एक है उसे किसी भी नाम से पुकार लो, ध्वनि पहुंचेगी उसी एक जगह जहां वह है। रोज सुबह अपनी प्रार्थना-सभा में ईश्वर अल्लाह तेरे नाम का संदेश देकर गांधी धर्म के नाम पर फैलती या फैलायी जा रही कटुता को समाप्त करने का संदेश ही दे रहे थे।
पता नहीं मूल भजन में यह शब्द बापू ने जोड़े थे या किसी और ने पर जिसने भी जोड़े थे उसके प्रति हमें आभार व्यक्त करना चाहिए— इससे भजन को नया आयाम मिला है और जब हम कहते हैं, ‘सबको सन्मति दे भगवान’ तो इसका सिर्फ एक ही अर्थ निकलता है कि हम संपूर्ण मनुष्य जाति के कल्याण की कामना कर रहे हैं। इसे कोई और अर्थ देने का अथवा कोई और मंतव्य निकालने का मतलब ‘एकम‍् सत्य’ की मूल भावना को ही नकारना होगा।
ऐसा ही एक मंतव्य हमारे संविधान में दिये गये शब्द ‘सेक्युलर’ या ‘पंथ-निरपेक्ष’ का निकालने की कोशिश की जा रही है। कहा यह भी जा रहा है कि यह शब्द मूल संविधान में नहीं था, इसे संविधान में संशोधन करने के बाद जोड़ा गया। सही है यह बात। हमारे संविधान के निर्माताओं ने सेक्युलर या धर्म-निरपेक्ष शब्द जोड़ने से इंकार किया था। संविधान सभा में के.टी. शाह ने एक संशोधन प्रस्ताव रखते हुए ‘भारत धर्म-निरपेक्ष, संघीय समाजवादी राज्यों का संघ होगा’ शब्द जोड़ने का आग्रह किया था। तब बाबा साहेब अंबेडकर ने यह कहकर प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की संरचना में ही निहित है।



जवाहरलाल नेहरू ने अंबेडकर की बात से सहमति जतायी थी। संविधान सभा में तब यह भी कहा गया था कि आने वाली पीढ़ियां यदि चाहेंगी तो आवश्यकता के अनुसार शब्द जोड़ सकती हैं। वर्ष 1976 में, आपातकाल के दौरान, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यही किया था। संविधान के 42वें संशोधन के अनुसार तब संविधान के आमुख में ‘पंथनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ शब्द जोड़े गये थे। आपातकाल घोषित करने के लिए इंदिरा गांधी को किसी भी दृष्टि से सही नहीं ठहराया जा सकता, पर बयालीसवें संशोधन की उपयोगिता को नहीं नकारा जाना चाहिए।
सेक्युलरिज्म का यह अर्थ कदापि नहीं है कि सरकार धर्म-विरोधी है। संविधान में इसे जोड़ने का उद्देश्य सिर्फ इस बात को रेखांकित करना है कि देश की सरकार किसी धर्म विशेष को प्रश्रय नहीं देगी। उसकी दृष्टि में सब नागरिक समान हैं, भले ही नागरिक किसी भी धर्म को मानने वाला क्यों न हो। सरकार का कोई धर्म नहीं होगा। सरकार की दृष्टि में सब धर्म समान होंगे का अर्थ सिर्फ यही है कि धर्म-निरपेक्ष भारत में सरकार किसी भी धर्म विशेष के प्रति कोई विशेष आग्रह नहीं रखेगी।
सब धर्म समान हैं, सब धर्मों का लक्ष्य एक है। यह लक्ष्य है मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना। यदि हम इस बात को समझ लेते हैं, स्वीकार कर लेते हैं तो किसी भी भारतीय के प्रति हमारे मन में कोई द्वेष-भाव नहीं पनपेगा। हमारा साझा आंगन होगा, हमारा साझा चूल्हा होगा। यही धर्म-निरपेक्षता है। धर्म-निरपेक्षता का अर्थ धर्म का विरोध नहीं है, सर्व धर्म समभाव है। लोगों को उनकी जाति और धर्म के बावजूद प्यार करना ही धर्म-निरपेक्षता की भावना को समझना है। हमारे लिए यह समझ नयी नहीं है। सच तो यह है कि हमारी समावेशी संस्कृति भी हमें यही संदेश देती है।
हाल ही में भारतरत्न से सम्मानित लालकृष्ण आडवाणी ने वर्ष 1998 में संविधान की समीक्षा के संदर्भ में लिखे अपने एक लेख में कहा था, ‘सेक्युलरिज्म भारत की संस्कृति में है’। आडवाणी जी तब देश के गृहमंत्री थे। कुछ ऐसी ही बात स‍न‍् 2015 में पूर्व उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने भी कही थी। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था ‘भारत सिर्फ इसलिए सेक्युलर नहीं है, क्योंकि यह हमारे संविधान में है। भारत सेक्युलर है क्योंकि सेक्युलरिज्म हमारे डी.एन.ए में है।’
कभी इकबाल ने कहा था, हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा’। यहां हिंदी का अर्थ हिंदू नहीं है, हिंदुस्तानी है, भारतीय है। हम चाहे किसी भी धर्म को मानने वाले क्यों न हों, हमारी पूजा-पद्धति चाहे कैसी भी क्यों न हों, हम सब पहले भारतीय हैं। अपने आप को, या किसी को भी मंदिर-मस्जिद अथवा ईश्वर-अल्लाह में बांटकर देखना, सच पूछें तो मनुष्यता के प्रति एक अपराध है। धर्म का यह वैविध्य हमारी विशेषता ही नहीं, हमारी ताकत भी है। इस विविधता को बनाये रखने की आवश्यकता है, इस ताकत को बचाये रखने, इसे और मज़बूत बनाने की आवश्यकता है।
सवाल यह है कि यह कैसे हो? इस प्रश्न का उत्तर भी उसी भजन में है जिसे गांधीजी रोज़ सुबह अपनी प्रार्थना-सभा में गाया करते थे– ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान। इस बात का कोई मतलब नहीं है कि यह शब्द मूल भजन में थे या नहीं। मतलब है तो सिर्फ इस बात से कि यह शब्द, यह भाव, हमें बेहतर मनुष्य बनने की ओर ले जाते हैं।
कैसे बनें हम बेहतर मनुष्य? इस प्रश्न का उत्तर भी इसी तथ्य में छिपा है कि हमें मनुष्य बने रहना है। धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण के नाम पर मनुष्यता को टुकड़ों में बांटने से तो हम स्वयं इतने बंट जाएंगे कि हमारी पहचान ही खो जायेगी। मनुष्य होने की इस पहचान को जिंदा रखने का अर्थ है उस सत्य को स्वीकार करना, उस बात को समझना कि सत्य एक है, विद्वान उसे अलग-अलग तरीके से समझाते हैं। ईश्वर को अल्लाह या गॉड या भगवान के रूप में बांटना अपने आप को ही बांटना है। आज बंटने की नहीं, जुड़ने की आवश्यकता है। राजनेता इस बात को नहीं समझेंगे। शायद उनके स्वार्थ हमें बांटने से सधते हों। पर हमारा, यानी हर भारतीय नागरिक का हित राजनीति के जंजाल से मुक्त होने में है। हमें सत्ता की राजनीति नहीं, सेवा की राजनीति की आवश्यकता है।


आवश्यकता इस बात की भी है कि हम अपने संविधान में अंतर्निहित समानता, न्याय और बंधुत्व के विचारों से जुड़े रहें। संविधान के जिस आमुख में यह तीन शब्द हैं, उन्हीं के साथ सेकुलरिज्म यानी पंथ-निरपेक्षता भी है। सर्व धर्म समभाव की भावना को रेखांकित करने वाला यह शब्द सब धर्मों को आदर की दृष्टि से देखने का संदेश देता है। इस संदेश को समझना ही होगा। मनुष्य बने रहने की शर्त है यह।

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