न्याय प्रणाली में सुधार कैसे हो?

- डा. वरिंदर भाटिया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि न्याय प्रणाली को अधिक लचीला और अनुकूल बनाने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा है कि न्याय प्रदान करने वाली कानूनी प्रणालियों को आधुनिक बनाने की जरूरत है। वैसे तो हमारी न्याय प्रणाली दुनिया के अनेक देशों से बेहतर है, फिर भी इसमें रचनात्मक सुधार की गुंजाइश बनी हुई है। भारत की न्याय प्रणाली विश्व की सबसे पुरानी प्रणालियों में से एक है, जो अंग्रेजों ने औपनिवेशिक शासन के दौरान बनाई थी। देश में कई स्तर की अदालतें मिलकर न्यायपालिका बनाती हैं।
भारत की शीर्ष अदालत नई दिल्ली स्थित सर्वोच्च न्यायालय है और उसके तहत विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालय हैं। उच्च न्यायालयों के मातहत जिला अदालतें और उनकी अधीनस्थ अदालतें हैं जिन्हें निचली अदालतें कहा जाता है। इनके अलावा ट्रिब्यूनल, फास्ट ट्रैक कोर्ट, लोक अदालतें आदि मिलकर न्यायपालिका की रचना करते हैं। भारत में संविधान निर्माताओं ने शासन के तीनों अंगों…विधानपालिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका को एक समान शक्तियां दी हैं। एक समान शक्तियां प्राप्त होने के बावजूद न्यायपालिका (सर्वोच्च न्यायालय) को ही संविधान का संरक्षक कहा गया है। न्याय की बात जहां आती है, वहां कुछ बड़ी सैद्धांतिक बातें सामने आने लगती हैं। मसलन न्याय में विलंब अन्याय है, वादकारी का हित सर्वोच्च है, इत्यादि, पर जब व्यवहार में हम देखते हैं तो ठीक इसके विपरीत नजर आता है।
 प्रक्रियात्मक खामियों के अलावा सिस्टम में व्याप्त कदाचार, भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के साथ कुटिलता से किसी मामले को अनंत काल तक लटकाए रखने एवं न्याय में विलंब होने और ‘तारीख पर तारीख’ की त्रासदी सामने आती है। बॉलीवुड स्टार सन्नी दियोल का मशहूर फिल्मी डायलॉग ‘तारीख पर तारीख’ अब रोजमर्रा की भाषा का हिस्सा बन गया है।


यह कटु सत्य है कि न्याय प्रणाली की कुछ कमियों के चलते अनेक वादकारियों को प्रक्रियात्मक अनियमितताओं के कारण कई बार न तो समय से न्याय मिल पा रहा है, न ही उनकी पीड़ा का कोई तारणहार है। वे न्याय प्रणाली के अंतिम पायदान पर असहाय पड़े रहने के लिए अभिशप्त हैं। यही कारण है कि समाज में मौके पर ही न्याय की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और आए दिन देश के किसी न किसी हिस्से में घटित हो रही है। इसे क्या न्याय की संज्ञा नहीं दी जा सकती है? तारीख पर तारीख के कई कारण विदित हैं, जैसे कि बार (वकील) और बेंच (अदालतें) न्यायिक प्रक्रिया के मूल आधार हैं। अदालतों में मुकदमों का अंबार लगने का सबसे बड़ा कारण है धीमी सुनवाई। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की तुलना में निचली और जिला अदालतों की हालत ज्यादा खराब है। मुकदमों की शुरुआत यहीं से होती है और जिस मात्रा में मुकदमे दायर होते हैं, उस अनुपात में निपटारा नहीं होता।
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय कई बार समयबद्ध सुनवाई करने का आदेश देते भी हैं, लेकिन जजों की कमी भी सुनवाई को प्रभावित करती है। पुलिस के पास साक्ष्यों के वैज्ञानिक संग्रहण हेतु प्रशिक्षण का अभाव है। इसके अतिरिक्त कुछ अधिकारी प्राय: अपने कत्र्तव्यों को पूरा करने में विफल रहते हैं जिससे सुनवाई में अत्यधिक विलंब हो जाता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति पर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच गतिरोध भी बना रहता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया तय करने का काम अभी भी अधर में ही लटका हुआ है। रूल ऑफ लॉ इंडेक्स रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में प्रशासनिक एजेंसियां बेहतर प्रदर्शन नहीं करती और न्यायिक प्रणाली की गति बहुत धीमी है। इसकी मुख्य वजह अदालत में मामलों की बेतहाशा बढ़ती संख्या और कार्यवाही में होने वाली देरी है।
वैसे तो सुप्रीम कोर्ट हो या हाईकोर्ट, प्रति व्यक्ति न्यायाधीशों की संख्या अत्यंत सीमित होने के कारण मुकदमों के निस्तारण में विलंब होता है, पर निचली अदालत में वादकारियों को न्याय मिलने में अत्यंत पीड़ादायक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है और वे प्रणालीगत उत्पीडऩ के शिकार बनकर रह जाते हैं। उनका इतना अधिक सामाजिक, आर्थिक और मानसिक शोषण होता है कि आम तौर पर लोग पुलिस, अदालत जाने के नाम से ही घबराने लगते हैं। साथ ही कुछ लोगों में कानून अपने हाथ में लेने की प्रवृत्ति बढऩे लगती है। अनेक लोगों का सत्र न्यायालय में या निचली अदालतों में यह अनुभव बड़ा ही कड़वा और पीड़ादायक होता है। यहां पर प्रधानमंत्री जी की इच्छा अनुसार न्याय प्रणाली को अनुकूल बनाने की कवायद और भी जरूरी लगती है। न्याय प्रणाली को लचीला और अनुकूल बनाने की दिशा में इस समय आईटी सेक्टर प्रमुख भूमिका निभा रहा है।
सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) की वजह से न्यायिक प्रणाली में बड़ा बदलाव आया है। सूचना प्रौद्योगिकी ने न्यायिक प्रणाली को आसान कर दिया है। आम लोगों के लिए न्यायिक प्रणाली अब सुलभ हो गई है। सूचना प्रौद्योगिकी ने सिस्टम को आम लोगों के लिए बहुत आसान बना दिया है। ऑनलाइन सिस्टम से काम करने में बहुत बड़ा बदलाव आया है। आज हम लगभग सभी निर्णयों तक पहुंच सकते हैं, जो हमारे लिए और आभासी प्रणाली के साथ उपलब्ध हैं। इस समय कानूनी प्रक्रिया में क्षेत्रीय भाषाओं का उपयोग करने की आवश्यकता है। यदि हम न्याय तक पहुंच की बात करते हैं, तो अंतत: प्रचलित भाषा को किसी अन्य भाषा का स्थान लेना होगा। न्यायिक सुधारों को लेकर विधि आयोग ने कई सिफारिशें केंद्र सरकार को सौंपी हैं, जिनमें कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए गए हैं, लेकिन इस दिशा में कोई गंभीर पहल अब तक नहीं हो पाई है।
विधि आयोग ने अपनी हर सिफारिश में न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों की कमी को पूरा करने का सुझाव दिया है। आज न्यायपालिका के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है अदालतों में मुकदमों के बोझ को कम करना। यह तभी संभव होगा जब न्यायालयों में कार्य अवधि की सीमा बढ़ेगी। जिन राज्यों में मुकदमों का बोझ अधिक है, वहां विशेष अदालतें गठित करने का भी सुझाव दिया गया है। उच्च न्यायालय का विकेंद्रीकरण, यानी सभी राज्यों में इसकी खंडपीठ का गठन किया जाए, ताकि मुकदमों के निस्तारण में तेजी आए। विधि आयोग की सिफारिशों में इस बात पर जोर दिया गया है कि लंबित मुकदमों के निपटारे के लिए छुट्टियों के दिनों में कटौती की जानी चाहिए।
अमरीकी विचारक अलेक्जेंडर हैमिल्टन ने कहा था, ‘न्यायपालिका राज्य का सबसे कमजोर तंत्र होता है, क्योंकि उसके पास न तो धन होता है और न ही हथियार। धन के लिए न्यायपालिका को सरकार पर आश्रित रहना होता है और अपने दिए गए फैसलों को लागू कराने के लिए उसे कार्यपालिका पर निर्भर रहना होता है।’ 


जब भी हम न्याय तक पहुंच या कानूनी प्रणाली के कामकाज की बात करते हैं तो हम हमेशा अदालती मामलों के बारे में सोचते हैं, लेकिन ऐसे कई मामले हैं जिन्हें केवल बातचीत के माध्यम से हल किया जा सकता है। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि छोटे-छोटे मामलों को मिल-बैठ कर सुलझा लिया जाए और अदालतों को बोझिल होने से बचा लिया जाए?

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