समस्‍या जस की तस
इलमा अजीम  
पिछले कुछ दिनों से दिल्ली की हवा सांस लेने लायक भी नहीं रह गई है और इसे लेकर सरकार से लेकर अदालतें तक चिंतित दिख रही हैं, तो यह स्वाभाविक है। मगर हकीकत यह है कि ऐसी स्थिति कोई पहली बार या अचानक नहीं पैदा हुई है। हर वर्ष इस दौरान ठंड की शुरुआत के साथ ही हवा में जहर घुलना शुरू हो जाता है और तब तक इस मसले पर उदासीनता बरती जाती है, जब तक लोगों का दम न घुटने लगे। यों दिल्ली में प्रदूषण पूरे वर्ष किसी न किसी रूप में लगातार कायम रहता है और वह चिंता के स्तर से ऊपर ही होता है, मगर अब दिवाली के बाद बढ़ा प्रदूषण एक संकट के रूप में तब्दील हो गया है। इस वर्ष भी दिल्ली सरकार की ओर से प्रदूषण की समस्या पर काबू पाने के लिए धुआंरोधी टावर लगाने से लेकर सड़क पर वाहनों की संख्या को नियंत्रित करने जैसी कई घोषणाएं की गई, लेकिन जमीन पर उसकी हकीकत किसी से छिपी नहीं है। कई जगहों पर धुआंरोधी टावर बेकार पड़े हैं तो वाहनों की आवाजाही पर लगाम लगाने की योजना का भी कुछ ठोस हासिल सामने नहीं आया। इस मसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर सख्ती दिखाई।



 जबकि दिल्ली में प्रदूषण अब हर वर्ष की एक नियमित मुश्किल बन चुकी है। विडंबना यह कि इस समस्या से राहत के लिए सरकार की ओर से उठाए गए कदम आमतौर पर दिखावे के साबित होते हैं और लोगों की मुश्किल में तभी कुछ कमी देखी जाती है, जब किसी वजह से बारिश हो जाए है या फिर हवा चलने लगे। प्रदूषण के गहराते संकट का सामना करने के लिए कृत्रिम बारिश कराने की बात भी की जाती रही है, मगर सड़क पर वाहनों से पानी की बौछारों के जरिए धूल को काबू में करने की लगभग बेअसर कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता। दिल्ली सरकार ने प्रदूषण को काबू में करने के लिए सड़कों पर वाहनों की संख्या नियंत्रित करने के मकसद से सम-विषम व्यवस्था लागू करने की भी घोषणा की थी। मगर सुप्रीम कोर्ट ने इसकी उपयोगिता पर सवाल उठाए हैं। इस समस्या के स्थायी समाधान को लेकर ठोस पहल क्यों नहीं की जाती? सुप्रीम कोर्ट ने पराली जलाने पर तीखे सवाल उठाए हैं। जिन इलाकों में पराली जलाने के ज्यादा मामले पाए जाते हैं, उनमें पराली प्रबंधन को लेकर कोई वैकल्पिक नीति क्यों नहीं बनाई जा सकती? समय रहते दिल्ली सहित आसपास के राज्यों की सरकारों को आपस में मिल कर इस समस्या के दीर्घकालिक हल की योजना पर काम करना होगा।

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