जनता और चुनाव: सुखद लोकतंत्र की अनुभूति
- प्रो. एनएल मिश्र
लोकतंत्रीय व्यवस्था में सरकारें जनमत से बना करती हैं। पांच वर्ष के लंबे अंतराल पर चुनाव कराए जाते हैं। जब भारत लोकतंत्र बना तो लोकतंत्र स्थापित करना और उसे सर्वोच्च स्थान दिलाना एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय कर्तव्य था। समाज के बुद्धिजीवी लोग इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते थे। राष्ट्र के लिए कुछ भी कर गुजरने की तमन्ना उनके दिल में होती थी। बहुत से लोगों ने अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़कर देश को लोकतंत्रीय ढांचे में ला खड़ा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी और बहुतों ने तो अपनी कुर्बानी ही दे दी। एक अच्छा लोकतंत्र विकसित हो, सही मायने में वह चरितार्थ हो इसकी कोशिशें हो रहीं थीं पर विशालता की दृष्टि से बड़ा यह देश अपने आजादी काल पर ही उस विभीषिका को देखा जो सपने में भी नही सोचा गया था।
राष्ट्र का बंटवारा धर्म और मजहब के नाम पर हो गया। बंटवारा भी साफ सुथरा न होकर ऐसा हो गया जो आज तक नासूर बना हुआ है। भारतवर्ष में मुस्लिम आबादी कई देशों से अधिक हो गई फिर बंटवारे का क्या अर्थ निकला।क्यों देश को बांटा गया,यह बहुत बड़ा प्रश्न है। लेकिन इसका यह अर्थ नही कि उस समय के लोग और नेता गलत थे। अंग्रेजों से मुक्ति पाना जरूरी था लेकिन देश के विभाजन की कीमत पर जो आजादी मिली वह आजादी के अर्थ को उदासी में बदल देती है।
श्रीमती इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान की नीव डालकर उस उदासी को कम करने का एक बड़ा और अविस्मरणीय कार्य किया।हमें अपनी जमीन जो आजादी के समय धर्म के नाम पर बंटी थी उसे लेने की सोचना चाहिए या फिर धर्म के आधार पर यह देश सिर्फ हिंदुस्तानियों का होना था।जो यहां पर हैं उन्हें हिंदुस्तान के नियमो और कायदों से चलना चाहिए।तभी मुल्क में लोकतंत्र अपना सही अर्थ दे सकेगा।
       अब जो स्थिति है ,उसे स्वीकार्य करते हुए देश के लोकतंत्र की उन्नति की बात होनी चाहिए।भारतीय लोकतंत्र अब चौहत्तर पचहत्तर वर्षो का हो चला है।देश की राजनीति और देश का लोकतंत्र दोनों ही अपने उद्देश्य के अनुरूप और उम्मीदों के साथ न चलकर पुनः एक बार जाति और मजहब के बीच आकर  फंसे हुए है।अब जब हमपचहत्तर वर्षों बाद एक बार पुनः जाति और मजहब के द्वंद्व में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुके हैं तो आजादी के समय के नेताओं को कैसे दोष दे सकते हैं।जो स्थिति आज बनी है जिसमे कुछ नासमझ नेता हिंदुओं और हिंदू ग्रंथों को ही अपमानित करने में लगे हुए हैं।कुछ तो सभी के लिए ब्राह्मणों को दोष दे रहे हैं।आखिर इन नासमझ नेताओं को लगाम कौन लगाएगा।यदि ये बेलगाम हो गए तो इनकी दुर्गति निश्चित है।क्योंकि ब्राह्मण में सहनशक्ति अधिक होती है।सहनशीलता पार हो गई तो ऐसे नेताओं का क्या होगा कोई नही जानता।


       आज जो सबसे अधिक जरूरी है वह है लोकतंत्र का आनंद।हमें ऐसे लोकतंत्र का प्रबंधन करना आवश्यक है जहां वास्तव में लोकतंत्र हो,लोग राष्ट्र को सर्वोपरि मानते हुए समाज में भाई चारा स्थापित कर सकें।जहां महिलाओं का, मांओं का,बहनों का,बेटियों का सम्मान हो।जहां मजहबी अंतर्द्वंद्व न हो,जहां जातीय उन्माद न हो,जहां ऊंच नीच का कोई स्थान न हो,सभी अपने विकास के साथ साथ हिंदुस्तान के विकास का सपना देखें न कि जातीय उन्माद में उलझे।हम सच्चे अर्थों में एक अच्छे लोकतंत्र का आनंद तभी ले पाएंगे जब पूर्वाग्रह, रूढ़ि,अंधविश्वास,जादू, टोना और विभेद से दूर रहें।परंपराएं और हमारी संस्कृति हमें विकास का मार्ग देती हैं।
     देश में मणिपुर जातीय और मजहबी उन्माद का शिकार हुआ।महिलाओं के साथ जो हुआ देश ने देखा।क्या इसी के लिए हमे आजादी दिलाई गई थी।देश की राजनीति आपसी विद्वेष और कलह का शिकार हो चुकी है।क्या परस्परपूरक राजनीति का मार्ग नही बन सकता।देश की सेवा और देश पर शासन इन दोनो शब्दों में जमीन और आसमान का अंतर है।जब देश की सेवा का भाव अंदर जग जायेगा तो राजनीति भी परस्परपूरक हो जायेगी किंतु जब शासन की बात सिर चढ़कर बोलेगा तो विद्वेष ही जन्म लेगा।ऐसे में लोकतंत्र परिपक्व तो होगा किंतु वह आनंद भी देगा यह सोच का विषय है।देश के पांच राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव और चौबीस के प्रारंभ में लोकसभा का चुनाव होना है।पार्टियां ऐसे सुसज्जित हो रही हैं जैसे कुरुक्षेत्र में पांडव और कौरव सेना।ऐसे में परिणाम की कल्पना भी की जा सकती है।चुनाव को चुनाव की तरह लेना चाहिए न कि युद्धभूमि की तरह।क्योंकि निर्णय तो जनता को लेना है और जनता का 75 वर्षों का अनुभव उसके निर्णयन के लिए पर्याप्त है।
    अब जनता सहयोगी और परस्परपूरक नही रह गई है।नेताओं ने गलत तस्वीर प्रस्तुत कर उन्हे भ्रमित करने का पूरा प्रयास किया है।किंतु अफसोस तो यह है कि इन्ही नेताओं ने उन्हें प्रतियोगी बना दिया है।हिंदू कई जातियों में विभक्त हो चुका है।अभी तक वे जाति में बंटकर प्रतियोगिता कर रहे थे अब वे गोत्र में भी बंट रहे हैं और वह दिन दूर नही जब एक परिवार पति और पत्नी की अलग अलग विचारधारा में न बंट जाएं।और हम आप स्वस्थ लोकतंत्र की दुहाई दें।कैसे संभव है जब हम जोड़ने की बात न कर सिर्फ तोड़ने की बात करें।ऐसे में लोकतंत्र का आनंद सपना है और देश में शांति भी सपना है।आने वाले चुनाव में इसकी छाया दिखेगी इसमें कोई आशंका नही है।विखंडित चिंतन और मानसिकता वाली जनता क्या जनादेश देगी यह देखना दिलचस्प होगा।वोट के चक्कर में कोई हिंदू धर्म को ही ललकार रहा है तो कोई रामचरित मानस में उलझा है।अन्य देशों के चुनाव विकास और आनंद के मुद्दों पर लड़े जाते हैं।हमारे देश में जाति और मजहब प्रमुख निर्णायक तत्व हैं।शिक्षित होने के बावजूद इस दकियानूसी व्यवस्था से लाचार जनता यह समझने में अपने को सक्षम नहीं पाती कि देश को अच्छे नेताओं की जरूरत है न कि जाति और धर्म आधारित उन अवांछित तत्वों की जो समाज में घृणा,नफरत,और कत्ल की साजिश रचते हों।
जनता जाग चुकी है किंतु उसका जागना सोने से कम नहीं है। वह क्या निर्णय देगी यह तो वक्त बताएगा पर नेताओं को राष्ट्र उन्नति प्रथम पायदान पर रखना होगा। समाज को जो शांति और आनंद का अहसास कराएं वही सरकार कारगर होती है। वक्त सामने है निर्णय कीजिए,राष्ट्र निर्माण करिए।
(महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विवि चित्रकूट सतना)

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