समान संहिता और लोकतंत्र

समान नागरिक संहिता अनुच्छेद-44 के माध्यम से राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में वर्णित है। इसमें कहा गया है कि राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा। समान नागरिक संहिता से देश के प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान कानून होता है, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या समुदाय से क्यों न हो। वर्तमान में मुसलमानों, ईसाइयों और पारसियों के लिए अपने अलग-अलग व्यक्तिगत नियम हैं जबकि हिंदू दीवानी कानून के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं। नागरिक कानूनों में भी समरूपता लाने के लिए अलग-अलग समय पर न्यायपालिका ने अक्सर अपने निर्णयों में पुरजोर आवाज उठाई है कि सरकार को समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। इस संदर्भ में ‘शाह बानो’ मामले में दिया गया 1985 का निर्णय सर्वविदित है, तथा 1995 का ‘सरला मुद्गल’ वाद व 2017 का ‘शायरा बानो’ मामले भी इस संबंध में काफी चर्चित हैं। अब प्रश्न उठता है कि जिस देश में सदियों से ‘अनेकता में एकता’ के नारे लगते आ रहे हों तो फिर व्यक्तिगत कानूनों में एकरूपता से आपत्ति क्यों? धर्मनिरपेक्ष गणराज्य में धार्मिक प्रथाओं के आधार पर विभेदित नियम क्यों? एक संविधान वाले इस देश में लोगों के निजी मामलों में भी एक कानून क्यों नहीं है? क्या धार्मिक प्रथाओं का संवैधानिक संरक्षण मौलिक अधिकारों के अनुरूप नहीं होना चाहिए? एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को बल देने में आपत्ति क्यों? समय की नज़ाकत है कि समान नागरिक संहिता की नाजुकता केवल सांप्रदायिकता की राजनीति के संदर्भ में नहीं की जानी चाहिए। सभी व्यक्तिगत कानूनों में से प्रत्येक में पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी पहलुओं को रेखांकित कर मौलिक अधिकारों के आधार पर उनका परीक्षण किया जाना चाहिए। धार्मिक रूढ़िवादी दृष्टिकोण के बजाय समान नागरिक संहिता को चरणबद्ध तरीके से लोकहित के रूप में स्थापित किया जाना अपेक्षित भी है और आवश्यक भी। इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि सभी व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया जाना प्रयोजनीय है, और यह प्रक्रिया न्यायिक प्रणाली को अत्यधिक सरल-सहज और प्रत्यक्ष-पर्याप्त बनाने में मील का पत्थर साबित होगी।

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