कांग्रेस की छत्रछाया में फिर जगा भरोसा

- उमेश चतुर्वेदी
क्या भारत का मुस्लिम मतदाता फिर उसी तरह की सोच की तरफ बढ़ रहा है, जैसा भारतीय राजनीति में कांग्रेसी वर्चस्व के दिनों में था। कर्नाटक के नतीजों के ठीक एक महीने पहले की बात है। वाराणसी के मुस्लिम बुद्धिजीवियों के एक समूह से चर्चा के दौरान इस सोच का संकेत मिला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी के उन बौद्धिकों ने संकेत दिया कि वोट देने के लिए उनकी पहली पसंद कांग्रेस बनती जा रही है। स्थानीय चुनावों को छोड़ दें तो लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अब मुस्लिम मतदाता कांग्रेस की ओर देखने लगा है। कर्नाटक में जिस तरह के नतीजे आए हैं, उसमें पिछड़ी जातियों के मतदाताओं, वोक्कालिगा समुदाय के साथ ही सबसे बड़ा योगदान मुस्लिम मतदाताओं का है।
एक सर्वे के मुताबिक, पोलिंग बूथों पर पहुंचे राज्य के मुस्लिम मतदाताओं ने एकमुश्त कांग्रेस को वोट दिया है। सर्वे के मुताबिक, राज्य के करीब 82 फीसदी मुस्लिम वोटरों ने जहां एकमुश्त कांग्रेस को वोट दिया, वहीं जनता दल सेक्युलर को सिर्फ पंद्रह प्रतिशत का ही समर्थन मिला। अल्पसंख्यक समुदायों का भरोसा जीतने को भाजपा के शीर्ष नेता ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ जैसे नारे के साथ काम कर रहे हैं। लेकिन सर्वे के आंकड़ों पर भरोसा करें तो इस नारे और संकल्प के बावजूद अल्पसंख्यक समुदाय का भरोसा जीतने में भारतीय जनता पार्टी सफल नहीं रही। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अल्पसंख्यक लोगों की तरफ हाथ बढ़ा रहा है। इसके बावजूद अल्पसंख्यक वोटरों का भरोसा जीतने में कम से कम अभी तो कामयाब नजर नहीं आ रही। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में राज्य के सिर्फ दो प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने ही भाजपा का साथ दिया। बता दें कि कर्नाटक में अल्पसंख्यक करीब 16 प्रतिशत हैं। इसमें मुस्लिम वोटरों की संख्या करीब 82 लाख है। दरअसल, उत्तर भारत के राज्यों मसलन बिहार और उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटरों ने पिछली सदी के नब्बे के दशक से कांग्रेस से मुंह मोड़ना शुरू किया। राजनीति में अतीत में ताकतवर रही कांग्रेस का बुनियादी आधार दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय था। ब्राह्मण वर्ग का समर्थन था। लेकिन जब बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह का उभार हुआ तो मुस्लिम वोटर इन दोनों के इर्द-गिर्द इकट्ठा होने लगे। यही वह दौर है, जब भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की बहस शुरू हुई तो मुस्लिम समुदाय कथित धर्मनिरपेक्ष खेमे का सबसे बड़ा समर्थक आधार बनता गया। जिन राज्यों में उसे कांग्रेस का विकल्प दिखा, वह कांग्रेस छोड़ विशेषकर समाजवादी वैचारिक आधार का दावा करने वाले दलों के पीछे चलने लगा। एक दौर में वामपंथी राजनीति धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी अलंबरदार रही। साफ है कि वह भी अपने प्रभाव वाले दिनों में मुस्लिम वोट बैंक का सबसे बड़ा आधार बनी रही। हालांकि जब कहीं और ज्यादा आक्रामक राजनीतिक धारा दिखी तो मुस्लिम वोट बैंक उसकी तरफ झुकता चला गया। जैसे पश्चिम बंगाल में यह धारा ममता बनर्जी की ओर झुकती गई।बहरहाल कांग्रेस से मुस्लिम वोट बैंक के इस विचलन का असर यह हुआ कि कांग्रेस राजनीतिक रूप से उन राज्यों में सिकुड़ती चली गई, जहां उसके मुकाबले कहीं ज्यादा कथित धर्मनिरपेक्ष दल मिलता चला गया।लेकिन मुसलमानों का अब इन दलों से मोहभंग होने लगा है। जिसकी बानगी वाराणसी के मुस्लिम बौद्धिकों से चर्चा के दौरान दिखी। अब मुस्लिम तबका भी मानने लगा है कि कथित धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार उनका वोट लेते हैं, लेकिन उनके समुदाय की भलाई या राजनीतिक हितों के लिए ठोस काम नहीं करता। इस बीच कांग्रेस ने पिछली सदी के नब्बे के दशक के पहले का चोला पूरी तरह उतार दिया है। तब वह भले ही कथित धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के साथ ही तुष्टिकरण वाले कदम भी उठाती थी, लेकिन वह आज जैसे कथित सांप्रदायिकता के विरोध में झंडा नहीं उठाती थी। लेकिन आज की कांग्रेस के अगुआ भले ही कभी मठों में घूमें, जनेऊ धारण करें, पूजा करें। लेकिन यह भी सच है कि वे मुस्लिम तुष्टिकरण की बातें कहीं ज्यादा आक्रामक ढंग से करते हैं। आज का कांग्रेसी नेतृत्व धर्मनिरपेक्षता के खांचे में हिंदुत्व का चेहरा फिट करते वक्त उसे उदार बताता है, वहीं मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए खुलकर बोलता है।नागरिकता संशोधन कानून हो या कृषि कानून, कांग्रेस की अगुआई वाले कथित धर्मनिरपेक्षतावादी विपक्षी खेमे की सफलता कही जाएगी कि वह एक वर्ग के मतदाताओं के जेहन में बिठाने में सफल रहा कि ये कानून उनके समुदाय के विरोधी हैं। इसका असर अब दिखने लगा है। कर्नाटक में कांग्रेस के पक्ष में एकमुश्त पड़े मुस्लिम वोट इसी का असर है। कांग्रेस को पता है कि कथित उदार हिंदुत्व के नाम पर बहुसंख्यक समुदाय में विभाजन होता रहेगा। उसे लगता था कि अगर मुस्लिम वोट थोक में मिल जाए तो देर-सवेर दूसरे तबकों का भी समर्थन मिलने लगेगा।
यह भी कि दुनिया के हर देश में अल्पसंख्यक लोग तकरीबन एक ढंग से सोचते हैं। भारतीय मुसलमान भी अगर इसी तरीके से सोचना शुरू कर चुके हैं, तो कांग्रेस उम्मीद कर सकती है। लेकिन उन दलों के लिए नुकसान भी है, जिनके अस्तित्व का बड़ा आधार मुस्लिम वोट बैंक है। वहीं यह भी कि मुसलमानों के इस रुख से उत्साहित कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व अब और ज्यादा आक्रामक हो सकता है। इसका असर कांग्रेस की नीतियों पर भी पड़ेगा और आने वाले विधानसभा चुनावों में भी।

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