न्याय दिखना भी चाहिए

पुलिस एवं न्यायालय दोनों न्याय के सोपान होते हैं। पीड़ित व्यक्ति के लिए जहां पुलिस न्याय का पहला पड़ाव है, वहां न्यायालय एक आखिरी व महत्वपूर्ण आशा की किरण की तरह होता है। मगर जब दोनों पड़ावों पर असहाय व्यक्ति को वांछित सुकून न मिल पाए, तब कानून के विश्वास पर गहरी चोट लगती है। पुलिस के लिए किसी अपराधी को पकडऩा और फिर जमानत पर छोड़ देना ही काफी नहीं है, बल्कि पीड़ित के साथ सच्ची सहानुभूति रखना तथा तफ्तीश को सही मुकाम पर पहुंचाना और भी महत्वपूर्ण होता है। वास्तव में पीडि़त व्यक्ति को इस बात का एहसास व विश्वास करवाना भी आवश्यक होता है कि अपराधियों के साथ कड़ी पूछताछ की गई है। पीडि़त व्यक्ति को कई बार इस बात का पता ही नहीं चलता और उसे बताया भी नहीं जाता है कि गवाहों का बयान क्या लिखा गया है और जघन्य अपराधों में अपराधी की जमानत न होने के लिए पुलिस ने क्या-क्या प्रयत्न किए हैं। इसी तरह केस को बिना वजह से लंबित रखा जाता है तथा अपराधी सरेआम घूमते रहते हैं। जज को तो परमात्मा का रूप माना जाता है क्योकि वह किसी की जिन्दगी ले भी सकता और दे भी सकता है। संविधान ने उन्हें अपार शक्तियां प्रदान की हैं, जिनका उपयोग वे अपने विवेक के अनुसार कर सकते हैं, मगर शायद पद की नजाकत की वजह से कई बार कुछ जज साहिब विवेक का सही व पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते तथा पीडित/अपराधी दोनों को उचित समय पर न्याय नहीं मिल पाता। न्यायिक सिद्धांत में अक्सर यह कहा जाता है कि चाहे सौ गुनहगार छूट जाएं, मगर किसी एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए। दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान स्पष्ट किया था कि जज की यह जिम्मेदारी है कि किसी निर्दोष को सजा न हो, लेकिन उसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कोई गुनहगार सजा से बचकर जा न पाए। यह दोनों ही बातें सार्वजनिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। यदि अदालतों की कार्यवाही का सीधी प्रसारण हो जाए तो देश में करोड़ों लोगों को जल्द समय पर न्याय मिलने की उम्मीद बढ़ सकती है।

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