जांच तो होनी ही चाहिए
भ्रष्टाचार के मामलों की जांच जारी है। कुछ नेता जेल में कैद हैं। विपक्ष एजेंसियों के दुरुपयोग और सरकार के नाजायज विशेषाधिकार पर चिलचिला रहा है। इसे 2024 के आम चुनाव का वृत्तांत बनाना चाहता है। विपक्ष मोदी सरकार को आईना दिखा रहा है। देशहित के कुछ मुद्दों पर सरकार की जवाबदेही तय करना चाहता है। लोकतंत्र और संविधान को पूरी तरह प्रासंगिक और प्रभावी बनाए रखना चाहता है, लेकिन सरकार खुन्नस में आकर केंद्रीय जांच एजेंसियों का घोर दुरुपयोग करने पर आमादा है। सीबीआई ने 2022 के अंत तक 124 मामले दर्ज किए थे, जिनमें 118 मामले विपक्षियों के खिलाफ दर्ज किए गए और भाजपा के मात्र 6 केस इस दायरे में लाए गए। अर्थात करीब 95 फीसदी विपक्षी आरोपित हैं और किसी भी स्तर पर जेल भेजे जा सकते हैं। दूसरी महत्वपूर्ण एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) है। उसने कांग्रेस के 24, तृणमूल के 19, एनसीपी के 11, शिवसेना के 8, द्रमुक के 6, राजद और सपा के 5-5 और आम आदमी पार्टी (आप) के 3 नेताओं के खिलाफ विभिन्न मामले दर्ज कर रखे हैं। फिलवक्त विपक्ष की लामबंदी अभी बहुत दूर की कौड़ी लगती है। संविधान, कानून और नैतिकता का तकाजा यह है कि यदि कोई भ्रष्टाचार कर रहा है, तो उसे छोड़ा नहीं जाना चाहिए। उसकी जांच जरूरी है और प्रत्येक मामले को कानूनी निष्कर्ष तक पहुंचाया जाना चाहिए, क्योंकि भ्रष्ट नेता, अंतत:, देश की जनता को लूटते हैं और उनके भरोसे को ठगते हैं। ईडी में 51 सांसदों और 71 विधायकों के खिलाफ जांच जारी है। वे सभी विपक्ष के नहीं हैं। ये जांच एजेंसियां पहले की सरकारों के अधीन भी कार्यरत थीं, लिहाजा आज भी मौजूदा सरकार के संवैधानिक अधिकार-क्षेत्र में हैं। यदि आज इनका दुरुपयोग किया जा रहा है, तो पहले की सरकारों ने भी ‘तोता’ बनाकर रखा था। यह सर्वोच्च अदालत की टिप्पणी है। मामलों का कम और ज्यादा होना बेमानी है। चूंकि हमारी संवैधानिक और प्रशासनिक व्यवस्था ही कुछ ऐसी है कि जांच एजेंसियां, अंतत:, केंद्र सरकार के ही अधीन काम करती हैं। दरअसल बुनियादी सवाल यह है कि भ्रष्टाचार किया गया है अथवा नहीं? क्या जांच-पड़ताल और छापेमारी के बिना ही एजेंसियां आरोप-पत्र अदालत में दाखिल कर सकती हैं? एजेंसियां या सरकार नहीं, बल्कि माननीय न्यायाधीश साक्ष्यों, सबूतों, दस्तावेजों और कानून की धाराओं के मुताबिक, आरोपितों को रिमांड पर भेजते हैं अथवा न्यायिक हिरासत में जेल भेजा जाता है। इस पूरी प्रक्रिया के लिए प्रधानमंत्री मोदी को कोसना, उन्हें ‘तानाशाह’ करार देना या प्रत्येक भ्रष्टाचार के बदले अडानी, अडानी का लगातार प्रलाप करना नैतिक या तर्कसंगत नहीं है।एजेंसियों के कथित दुरुपयोग के खिलाफ विपक्ष के कई नेता सर्वोच्च अदालत तक दस्तक दे चुके हैं, लेकिन अदालत ने भी हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा। शीर्ष अदालत भी कहती रही है कि कानूनी मामला कानूनी पायदानों के जरिए ही चलना चाहिए। जनता के जनादेश ऐसे विलापों से कतई प्रभावित नहीं होते। बहरहाल ताज़ा मामला लालू यादव और उनके परिवार तथा 2004-09 के दौरान रेलवे में नौकरी के बदले ज़मीन घोटाले का ही लें, तो जांच और एजेंसियों की छापेमारी को ‘अनैतिक’ या ‘दुरुपयोग’ कैसे करार दिया जा सकता है? लालू यादव कुख्यात चारा घोटाले में सजायाफ्ता नेता हैं और फिलहाल जमानत पर हैं। यह केस प्रधानमंत्री देवगौड़ा के कार्यकाल के दौरान दर्ज किया गया था। उस सरकार के समर्थक नेता लालू भी थे। सवाल है कि क्या इतनी ‘अमीरी’ की जांच नहीं होनी चाहिए? लालू तो खुद को गरीब-गुरबे का नेता घोषित करते रहे हैं। गरीब-गुरबे का परिवार बिहार का सबसे अमीर परिवार कैसे बन गया, क्या यह सच देश के सामने नहीं आना चाहिए? इसी तर्ज पर अन्य घोटालों की जांच की जा रही है। 

No comments:

Post a Comment

Popular Posts