गांवों को भी मिले उपचार

यह चिंता की बात है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में स्वास्थ्य बजट में गिरावट आई है। हालांकि, महामारी के दौर ने केंद्र व राज्य सरकारों को स्वास्थ्य बजट बढ़ाने को बाध्य किया, लेकिन इस बजट में निरंतर वृद्धि जरूरी है। तभी आम आदमी को राहत मिलेगी। दरअसल, नेशनल हेल्थ अकाउंट के नवीनतम आंकड़ों में खुलासा हुआ कि वर्ष 2004-05 से जीडीपी के अनुपात में स्वास्थ्य बजट में जो लगातार वृद्धि जारी थी, वह वर्ष 2018-19 में गिरावट दर्ज करती है। सवाल है कि आर्थिक उन्नति के दावों के बावजूद हमारा स्वास्थ्य बजट क्यों नहीं बढ़ रहा है। सवाल यह भी कि जब वर्ष 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में 2025 तक जीडीपी के अनुपात में स्वास्थ्य बजट 2.5 फीसदी करने का लक्ष्य रखा था तो फिर इस दिशा में ईमानदार प्रयासों में निरंतरता क्यों नहीं नजर आती है। निस्संदेह, देश की तरक्की के अनुपात में स्वास्थ्य सेवाओं का भी विस्तार किया जाना चाहिए। देशवासियों की बेहतर सेहत भी आर्थिक प्रगति का ही सूचक है। वैसे हाल में जारी आंकड़ों का सकारात्मक पक्ष यह भी है कि भारतीयों द्वारा स्वास्थ्य की देखभाल पर जेब से किये जाने वाले खर्च में गिरावट दर्ज की गई है। सरकारों को करदाताओं से अर्जित आय को विवेकशील ढंग से खर्च करके स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी जरूरतों को प्राथमिकता देनी होगी। इसमें दो राय नहीं कि चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार शहरों तक ही केंद्रित नहीं होना चाहिए। यदि शहरों में बड़े अस्पताल बनते हैं तो ग्रामीणों को यातायात व रहने-खाने पर अधिक खर्च करना पड़ता है, जिससे उनका स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च बढ़ जाता है। निस्संदेह, बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं हर नागरिक का अधिकार है। सरकारें सुनिश्चित करें कि ग्रामीणों को निकट के कस्बों व शहरों में गुणवत्ता का उपचार मिल सके। साथ ही वे फर्जी डॉक्टरों व नीम-हकीमों के चंगुल से मुक्त हो सकेंगे। इसके साथ ही स्वास्थ्य तंत्र भ्रष्टाचार से मुक्त हो और केंद्र व राज्य स्वास्थ्य बजट में लगातार वृद्धि करते रहें। वहीं यह बात शिद्दत से महसूस की जाती रही है कि ग्रामों व छोटे शहरों में भी विशेषज्ञता का उपचार उपलब्ध हो। जब सरकारें चिकित्सा सेवाओं पर पर्याप्त धन खर्च करती हैं तो मरीजों व उनके तीमारदारों की जेब पर खर्च का दबाव कम होता है। हालांकि, स्वास्थ्य सेवाएं राज्य सूची में शामिल होती हैं लेकिन केंद्र सरकार के बजट व पारदर्शी नीतियों से राज्यों की चिकित्सा गुणवत्ता में सुधार होता है। केंद्र की नीतियां बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के अनुकूल माहौल बना सकती हैं। प्राइवेट अस्पतालों का विस्तार हो और उसमें निजी निवेश को बढ़ावा मिले, लेकिन संतुलन के लिये बेहतर सरकारी चिकित्सा सेवाओं का होना भी जरूरी है। केंद्र सरकार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जीडीपी के तीन फीसदी के स्वास्थ्य सेवा पर खर्च के पैमाने के लक्ष्य को हकीकत बनाने के लिये ईमानदार प्रयास करने चाहिए।

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