लापरवाह तंत्र की संवेदनहीनता
दुनिया में सबसे तेज गति से विकसित होती अर्थव्यवस्था के दावों के बीच काला सच यह है कि देश में आत्महत्या करने वालों की संख्या व दर में तेजी आई है। उसमें भी दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आत्महत्या करने वालों में हर चौथा दिहाड़ी मजदूर हैं। लगता है कि श्रमिकों की सुध लेने के लिये बने ई-श्रम पोर्टल तक अधिकांश श्रमिकों की पहुंच नहीं हो पायी। एक तो ठेकेदार शोषण के लिहाज से उन्हें रोकते हैं, दूसरे अशिक्षित श्रमिकों के लिये पोर्टल तक पहुंचना एक टेढ़ी खीर ही है। डिजिटल विभाजन भी इस वर्ग की दुखती रग है जिसके चलते लाखों श्रमिक अपने हक से वंचित हैं। 
                      राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट नजर डालें तो साफ हो जाता है कि वर्ष 2021 में आत्महत्या करने वालों में 25.6 प्रतिशत हिस्सा दिहाड़ी मजदूरों का है। वर्ष 2014 में जहां देश में 15,735 श्रमिकों ने आत्महत्या की थी, तो वर्ष 2021 में यह आंकड़ा 42 हजार तक जा पहुंचा है। जो श्रमिक वर्ग की बदहाली-असुरक्षा को ही उजागर करता है। जाहिर बात है कि जहां एक ओर देश का सत्ता तंत्र उदासीन है, वहीं समाज की संवेदनहीनता भी उजागर होती है कि वह अपने श्रमवीरों को सुरक्षाबोध व मदद नहीं दे सकता। नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट बताती है कि देश का पिच्चासी फीसदी कार्यबल अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत है। जिसकी खून-पसीने की कमाई से उद्योग जगत दमकता है और शेयर बाजार ऊंचाइयां चढ़ता है। इस अर्थव्यवस्था के कंगूरे तो चमक रहे हैं, लेकिन इसकी बुनियाद को थामे श्रमिकों की कराहटें किसी को सुनाई नहीं देतीं। कड़ी मेहनत के बावजूद उन्हें उन अधिकारों के अनुरूप सुरक्षा नहीं मिलती, जो दशकों से बने कानूनों के बूते देने का वायदा किया जाता रहा है। देश में दशकों से गूंज रहे गरीबी दूर करने के नारों की छांव इन श्रमिकों को नहीं मिली। दरअसल, इन्हें गरीबी की दलदल से बाहर निकालने के ईमानदार प्रयास होते नजर ही नहीं आये। कहने को तो न्यूनतम मजदूरी कानून तथा अन्य सुरक्षा के दावे किये गये, लेकिन ठेकेदारों, कारोबारियों व ताकतवर लोगों ने यह हक उन तक नहीं पहुंचने दिया। देश में लगातार गहरी होती अमीरी-गरीबी की खाई इस भयावह सच को उजागर करती है। निस्संदेह, आत्महत्या का यह आकंड़ा कोरोना काल जैसी विषम परिस्थितियों का है, लेकिन सवाल शासन के राहत पहुंचाने के दावों का भी है।निस्संदेह कोई व्यक्ति तभी खुदकुशी की राह चुनता है जब उसके उम्मीद के सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं। जो तंत्र पर उसके अविश्वास का प्रतीक तो है ही, साथ ही समाज की संवेदनहीनता को भी उजागर करता है। खुदकुशी करने वाले व्यक्ति को समाज से भी कोई उम्मीद नहीं है। यह स्थिति किसी लोककल्याणकारी व्यवस्था में सरकारों की उदासीनता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े करती है। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2021 में जिन एक लाख चौसठ हजार तैंतीस लोगों ने खुदकुशी की, उसमें श्रमिकों के अलावा स्वरोजगार में लगे लोग, छात्र, सेवानिवृत्त लोगों के अलावा वेतनभोगी भी शामिल थे। निस्संदेह, इस कालखंड को कोरोना संकट के चलते अपवाद के रूप में भी देखा जा सकता है। लेकिन संकट काल में मदद का तंत्र भी तो विफल हुआ है। सख्त लॉकडाउन व समयबद्ध प्रतिबंधों ने अनेक छोटे-बड़े कारोबारों को खत्म किया। खासकर उन लोगों पर घातक असर ज्यादा पड़ा जो रोज कुआं खोदकर पानी पीते थे। परिवार का पेट न भर पाने की मजबूरी उन्हें लज्जित करती होगी, तभी वे आत्मघाती कदम उठाते हैं। लेकिन मौजूदा महंगाई के दौर में भी बेरोजगारी की ऊंची दर श्रमिक वर्ग का जीना मुहाल किये हुए है। प्रश्न यह भी है कि देश की अस्सी करोड़ आबादी को मुफ्त अनाज देने के दावों के बीच आत्महत्या के ग्राफ में यह तेजी क्यों? एक निष्कर्ष यह भी है कि आजादी के अमृतकाल में भी एक तबके के लिये विष पीना मजबूरी बनी हुई है। गाहे-बगाहे बंधुआ मजदूरी व बाल मजदूरी की खबरें भी आती रहती हैं। जो श्रमिकों की असुरक्षा की स्थिति को ही उजागर करती हैं। दरअसल, असंगठित क्षेत्रों के श्रमिकों को सुरक्षा देने के लिये गंभीर प्रयासों की जरूरत है।

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