द्रोपदी मुर्मूः गणतंत्र का शानदार पड़ाव  
द्रोपदी मुर्मू ने भारत के 15वें राष्ट्रपति के रूप में आज शपथ ग्रहण की। आज का यह दिन महज एक तारीख नहीं है, बल्कि एक शिलालेख है। कई मिथक टूटे हैं और आगे भी टूटते रहेंगे। जंगल की बेटी, गरीबी और किल्लतों में पली-बढ़ी, पारिवारिक त्रासदियां झेलते हुए, अंधेरों को चीर कर राष्ट्रीय पटल पर उभरी हैं, तो यह भारत के लोकतंत्र और गणतंत्र के शानदार सफर का एक पड़ाव है। आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति के तौर पर शपथ लेना देश के करीब 1.30 लाख गांवों के करीब 11 करोड़ आदिवासियों में आज उत्सव का दिन है। जश्न के लम्हे हैं। उनके पांव यूं थिरक रहे हैं मानो सावन कोई गीत गुनगुना रहा हो। देश के आदिवासी तो जंगलों के सहारे, पहाड़ों के बीच, कबीलों की शक्ल में भी, दूरदराज के इलाकों में रहने के आदी रहे हैं। उन्हें आज यथार्थ का अनुभव हुआ है कि उनके बीच की बेटी भी भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद तक पहुंच सकती है, राष्ट्रपति चुनी जा सकती है और यह भारत के संविधान की ही शक्ति है। देश में जब स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के मौके पर ‘अमृत महोत्सव’ का माहौल है, तब एक ‘आदिशक्ति’ राष्ट्रपति चुनी गई हैं। एक पार्षद से राजनीतिक करियर शुरू करने वाली द्रौपदी मुर्मू विधायक और ओडिशा सरकार में मंत्री भी रहीं। उन्हें झारखंड के राज्यपाल पद पर भी काम करने का मौका मिला। वह तब राष्ट्रीय सुर्खियों में सामने आईं, जब भाजपा की ही रघुवर दास सरकार द्वारा पारित दो बिलों पर उन्होंने हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया और बिलों को लौटा दिया। उन बिलों से आदिवासियों में अलगाव की भावना पैदा होने का भय था। कमोबेश विपक्ष के उन चेहरों के लिए यह उदाहरण ही पर्याप्त है कि मुर्मू ‘मूर्ति’ नहीं, कडक़ संवैधानिक शख्सियत भी हैं। वह अपनी नई भूमिका में संविधान की संरक्षक साबित होंगी, यह देश का विश्वास है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आदिवासी समाज को देखने और आंकने का नज़रिया भी बदलेगा। देश जंगलात की दुनिया में झांक कर देखेगा और उसकी तकलीफों को समझने और साझा करने की कोशिश करेगा। आदिवासियों को माओवादी या नक्सलवादी करार देने की रवायत भी कम होगी। बहरहाल द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से बहुस्तरीय संदेश प्रवाहित हुआ है। पत्थर तोड़ती और जंगल से लकडिय़ां ढोकर लाती आदिवासी महिला के साथ-साथ देश के शहरों तक सक्रिय युवतियों में भी उम्मीद और संकल्प की नई लहर प्रवाहित होनी चाहिए। सामाजिक, सांस्कृतिक के अलावा राजनीतिक और चुनावी समीकरण भी बदलेंगे, क्योंकि 47 लोकसभा और 487 विधानसभा सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। इनमें से 31 सांसद तो भाजपा के हैं। यकीनन आने वाले चुनावों में भाजपा के पक्ष में लाभ की स्थिति दिखाई देगी। आदिवासी कभी कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक होते थे, लेकिन आज वह राजनीति समाप्त हो चुकी है। चूंकि दबे-कुचले, वंचित समुदायों को सशक्त बनाने का काम भाजपा और खासकर प्रधानमंत्री मोदी की राजनीति कर रही है, बेशक यह भी विशुद्ध रूप से सियासत है, चुनाव ही सियासत के निष्कर्ष हैं, लेकिन हाशिए पर पड़े तबकों को देश की मुख्यधारा में प्रतिनिधित्व भी हासिल हो रहा है।

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