एक स्त्री

घर सजाने की धुन में,
अपना श्रृंगार भूल जाती है।
अपनों की इच्छा पूर्ति में,
अपनी पसंद भूल जाती है।



बच्चों की देखभाल में,
अपना दर्द भूल जाती है।
न हो तकलीफ अपनों को, सोचकर
सेहत से समझौता कर जाती है।

बिना वेतन, बिना अवकाश,
हर जिम्मेदारी निभाती है।
पति से ले मदद तो,
सास ताने सुनाती है।

साकार करने स्वप्न अपनों के,
स्वयं के सपने तोड़ जाती है।
झूठी मुस्कान मुस्काती है,
हर दर्द छुपा जाती है।

घर संसार में खो जाती है,
चाहकर भी स्वयं को ढूँढ न पाती है।
इतने पर भी कोई कद्र नहीं उनकी,
क्यूँकि ये बातें, उनके कर्तव्यों में गिनी जाती है।
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- सोनल सिंह"सोनू"
कोलिहापुरी, दुर्ग (छग)।

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