वन महोत्सव के तहत विवि में किया पौधारोपण

 दुर्लभ प्रजातियों पर विवि का ध्यान केन्द्रित
मेरठ। सबसे पहले भारतीय द प्लांटेशन सप्ताह की शुरुआत 20 से 27 जुलाई 1947 में पंजाबी बोटैनिस्ट  एम.एस. रंधावा  द्वारा की गई थी। सबसे पहला पौधा 20 जुलाई 1947 में तत्कालीन दिल्ली पुलिस कमिश्नर खुर्शीद अहमद खान द्वारा लगाया गया था। उस पौधे का नाम बोहिनिया था।
भारत में बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण व नगरीकरण के लिये पेडों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है। पेड़ों के प्लांटेशन को बढ़ावा देने के लिये यह कार्यक्रम मनाया जाता है। भारत ने 2030 तक 2 बिलियन कार्बन सीक्वेंटिंग  करने का लक्ष्य रखा है।
इसी क्रम में १ जुलाई से चौधरी चरण सिंह विवि के वनस्पति विज्ञान विभाग में साप्ताहिक कार्यक्रम मनाया जा रहा है। विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. विजय मलिक  ने बताया कि वन महोत्सव कार्यक्रम के प्रथम दिन विभाग में मैग्नोलिया ग्रैंडिफ्लोरा और पाइपर स्पीशीज के पौधों का प्लाटेशन किया गया। उन्होंने बताया कि कार्यक्रम के दूसरे दिन कार्डिया सेबेस्टिना, तीसरे दिन पोडोकार्पस स्पीशीज और चौथे दिन वर्नोनिया ,मिगडेलिना पौधों का रोपण किया गया है। प्रथम दिन से अभी तक जितने भी पौधों का रोपण किया गया हैए वे सभी स्पीशीज कैम्पस में पहले से नहीं थी। इस बार वन महोत्सव का यह कार्यक्रम दुर्लभ प्रजातियों के प्रापेगेशन को बढ़ावा देने के लिये किया जा रहा है।  वन महोत्सव कार्यक्रम के पाँचवे दिन एक दुर्लभ प्रजातिख् जिसका नाम ओरोजाइलम इंडिकम है के 50 सीडलिंग को कैम्पस के अलग.अलग हिस्सों,.गेस्ट हाडस के गार्डन और सड़क के किनारे व तपोवन इत्यादि में लगाया गया है। ऑरोक्सिलम इंडिकम जिसे लोकप्रिय रूप से अरलू के नाम से जाना जाता है, एक मध्यम से बड़े आकार का पर्णपाती वृक्ष है जो भारत के पूरे उष्ण कटिबंधीय जंगलों में 1000 मीटर की ऊँचाई पर पाया जाता है। पौधे के विभिन्न भागों का उपयोग जैसे.जड़ की छाल, तने की छाल और बीज एंटी.एलर्जी, एंटीमाइक्रोबियल, एंटीफंगल, एंटी.इंफ्लेमेटरी और एंटी.कैंसर की दवा के रूप में किया जाता है। इस पौधे के विभिन्न भाग जैसे.पत्ते, फूल, फल और युवा अंकुर कच्चे या पके हुए खाने योग्य होते हैं। फल का उपयोग टैनिन और रंगाई में और लकड़ी का उपयोग माचिस बनाने, लुगदी और कागज बनाने में उपयुक्त होता है। आमतौर पर यह पेड़ खेती की स्थिति में नहीं पाये जाते हैं इसलिये सारा दबाव प्राकृतिक वन पर है क्योंकि दवा उद्योगों की जरूरतों को पूरा करने के लिये प्राकृतिक जंगलों से बड़ी मात्रा में कच्चे माल की खरीद की जाती है। इसके अलावा, इसके अवैज्ञानिक और अधिक दोहन के कारण, प्रजातियाँ अपने  प्राकृतिक आवासों में दुर्लभ होती जा रही है जिस वजह से इसके संरक्षण की आवश्यकता है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर इस प्रजाति के संरक्षण के लिये यह एक छोटी सी पहल है।
इस कार्यक्रम में वनस्पति विज्ञान विभाग के पी.एच.डी. स्कॉलर्स पूरे जोश व उत्साह के साथ भागीदारी कर रहे हैं, जिनमें विवेक कुमार, ललिता,अर्चस्वी त्यागी, पूजा जैन, संदीप कुमार, महेन्द्र सिंह, अमित मावी, चंदन यादव, सुशील कुमार, कुलदीप कुमार, सादिया, नुपुर ,वंदना आदि शामिल रहे।

No comments:

Post a Comment

Popular Posts