सर्व सुलभ हो शिक्षा


तकरीबन दो साल बाद अब स्कूलों की रौनक लौटना शुरू हुई है। कोरोना ने कई लोगों को जीवन भर का दर्द दिया तो स्कूल आने वाले अभिभावकों के रोजी-रोजगार भी छीना है। ऐसे में सरकार को भरसक प्रयास करना चाहिए कि शिक्षा सर्वसुलभ हो। उसका व्यवसायीकरण न होने पाए। वैसे तो शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली सतत प्रक्रिया है, जिससे मनुष्य का न केवल बौद्धिक विकास होता है, बल्कि उसका शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास भी होता है। अनेक शिक्षाविदों के द्वारा समय-समय पर किए गए शोध इसका प्रमाण हैं। हमारे देश में शिक्षा का क्या महत्त्व है, यह शायद किसी को बताने की जरूरत नहीं है। हर रोज ग्रामों और शहरों में भारत के करोड़ों बच्चे हर सुबह अपनी पीठ पर बस्ता लेकर अपना भविष्य संवारने स्कूल जाते हैं। हर माता-पिता की इच्छा रहती है कि उनका बच्चा पढ़-लिखकर एक महान और काबिल इनसान बने और दुनिया में उनका और अपना नाम खूब रोशन करे। माता-पिता के  इन सपनों को पूरा करने में हमारे स्कूल और हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है। अब जरा विडंबना देखिए कि लोगों के जीवन को गढ़ने वाली ये पाठशालाएं आजकल एक समृद्ध व्यवसाय का रूप ले चुकी हैं जिसने अच्छी शिक्षा को पैसे वालों की धरोहर बना कर रख दिया है। अब साधारण तथा मध्यमवर्गीय परिवार इन फाइव स्टार से दिखने वाले स्कूलों को दूर से टकटकी लगाकर ललचाई आंखों से देखते हैं और सोचते हैं कि काश, उनका बच्चा भी ऐसे स्कूलों में पढ़ पाता। यह हाल केवल शहरों में होता तो भी भाता, परंतु आजकल तो गांवों में भी शिक्षा का व्यवसायी और व्यापारीकरण हो रहा है। हर गली-मोहल्ले में दो-चार किराए के कमरों में हिंदी में अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई हो रही है, जिसे यदि इंग्लिश न कह कर हिंगलिश माध्यम कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। आज यदि सरकारी स्कूलों के आंकड़ों पर नजर दौड़ाई जाए तो हम देखेंगे कि इन स्कूलों में केवल निर्धन वर्ग के लोगों के बच्चे ही पढ़ने के लिए आते हैं क्योंकि प्राइवेट शिक्षा संस्थाओं में फीस के रूप में एक बड़ी रकम वसूली की  जाती है, जिन्हें केवल पैसे वाले धनाड्य लोग ही अदा कर पाते हैं। ये शिक्षा के व्यापारी लोगों की मनःगति बहुत अच्छे से पढ़ चुके हैं। क्योंकि हर माता-पिता अपनी संतान को डॉक्टर, इंजीनियर से अतिरिक्त कुछ बनाना चाहते ही नहीं हैं, जो बुरी बात भी नहीं, परंतु बच्चे की क्षमता को कोई देख नहीं रहा। तभी तो आज अच्छी और उच्च शिक्षा का निरंतर व्यवसायीकरण हो रहा है। निजी शिक्षण संस्थानों के संचालकों के पौ-बारह हो रहे हैं। वे इसी भावना का लाभ उठा कर मनमानी फीस वसूल कर रहे हैं या यूं कहें शिक्षा के खुले बाज़ार में लूट मचा रखी है। हर वर्ष इन शिक्षा की दुकानों में एक तरफ ग्राहक बढ़ रहे हैं तो वहीं दूसरी  तरफ स्कूल की फीस बढ़ती ही जा रही है। क्या कभी किसी ने गौर किया कि जितनी रफ्तार से फीस बढ़ रही है, उतनी ही गति से शिक्षा का स्तर भी बढ़ रहा है? शायद नहीं। बल्कि यह स्तर दिन-प्रतिदिन नीचे ही गिरता जा रहा है। क्या कभी किसी ने सोचा है कि इस सबके लिए कौन जिम्मेवार है? गांव-देहातों में फीस न होने के कारण कुछ लोग तो अपने बच्चों को स्कूल भेजने में भी असमर्थ हैं।  यदि फीस का जुगाड़ हो जाए, उसके साथ-साथ पुस्तकें, यूनिफॉर्म के खर्चे भी बहुत हो गए हैं जो उनकी पहुंच से कोसों दूर होते हैं। शिक्षा का व्यवसाय आज इतना फल-फूल रहा है कि स्कूल वालों ने साथ-साथ पुस्तक और स्कूल ड्रेस का व्यापार भी करना शुरू कर दिया है। सरकार को चाहिए कि वह सबसे पहले शिक्षा के व्यवसायीकरण पर रोक लगाए। सभी निजी शिक्षण संस्थाओं की फीस का ढांचा सरकार स्वयं तय करे।

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