महकती अभी रातरानी तो है



मानता हूँ गरीबी गिरानी तो है
पेट के  वास्ते शेष  पानी तो है।

दूसरों से भले लाख कम ही सही
मुस्कराती हुई ज़िदगानी तो है।




लाख कर लो जतन छिप सकेगी नहीं
दिख रही पीर कोई पुरानी  तो है।

गर ज़हाँ साथ देता नहीं, तो न दें
उस ख़ुदा की मगर मेहरबानी तो है।

मीत, मुरझा गया मोगरा गम न कर
यह महकती अभी रातरानी तो है।
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- राजेंद्र श्रीवास्तव, विदिशा

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