प्रकृति से खिलवाड़ करती मानवीय हरकतें

- संजीव ठाकुर
वर्तमान में पृथ्वी तथा प्राकृतिक संसाधनों के विनाशकारी जलवायु परिवर्तन की गति तथा उसके प्रभाव में गति की तीव्रता तेजी से महसूस की जाती रही है। इसका और कोई कारण ना होकर मानव की अवांछित गतिविधियां ही हैं। जिनमें मूलतः वन का विनिष्टिकरण, जीवाश्म ईंधन का ताबड़तोड़ प्रयोग, नई कृषि नीति तथा पद्धति की तीव्रता से होते हुए उद्योगों की संरचना और कंक्रीट के जंगलों यानी शहरों का विस्तारीकरण बड़े कारण हैं।
औद्योगिक क्रांति के बाद विज्ञान से उत्पादित औद्योगिकरण के विकास के साथ मनुष्य ने वायुमंडल के प्रक्रिया गत प्रभाव में बदलाव लाना शुरू किया है, जिसके फलस्वरूप पृथ्वी में भूमंडलीय उस्मा का विस्तार ओजोन परत का क्षरण, असामयिक बाढ़, अकाल का आना अत्यंत महत्वपूर्ण है। ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि से हरित गृह प्रभाव की घटना प्रभावित हुई है। ग्रीन हाउस इफेक्ट पृथ्वी की एक सामान्य प्रक्रिया है जिसके कारण पृथ्वी का निचला स्तर मंडल गर्म बना रहता है तथा जीवन के अनुरूप वायुमंडल में वातावरण जीवन उपयोगी तथा जीवन के अनुकूल बना रहता है। किंतु ग्रीन हाउस इफेक्ट में बदलाव आने के साथ ही मनुष्य के सामने जलवायु परिवर्तन की बड़ी समस्या सामने आई है। इस तरह के परिवर्तन से ही पृथ्वी की परत को हमें बचाना होगा जिससे हम अति उष्णता, गर्म जलवायु और कम उत्पादन की विभीषिका से मानव को बचा सकते हैं।



विश्व में विकासशील देश दोहरी चुनौतियों से जूझ रहे हैं, पहली भुखमरी यानी कि गरीबी दूसरी जलवायु में तीव्र परिवर्तन और यह दोनों एक दूसरे से गहरे संबंधित हैं। विकासशील तथा गरीब राष्ट्र एक और गरीबी तथा भुखमरी से लड़ाई लड़ रहे हैं एवं गरीबी से छुटकारा पाकर गरिमामय जीवन जीना चाहते हैं ।इसके लिए वे अपने प्राकृतिक, वैज्ञानिक संसाधनों का दोहन करके विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का प्रयास करते हैं जिससे इनके सम्मुख कई चुनौतियां उत्पन्न हो जाती है। इनके पास पर्याप्त रूप से आर्थिक वित्तीय पूंजी की कमी साथ ही उन्नत तकनीक का अभाव भी है। ऐसे में यह विकासशील राष्ट्र के विकास हेतु परंपरागत विकास साधनों पर आश्रित हो जाते हैं, जैसे विद्युत उत्पादन के लिए कोयले का उपयोग करना, वाहनों में प्रयुक्त ईंधन की गुणवत्ता का निम्न होना, कारखानों की पुरानी मशीनों द्वारा कार्बन, सल्फर, नाइट्रोजन आदि तत्वों की बड़ी मात्रा में वायु को उत्सर्जित करना आदि आते हैं। इन सब के कारण ग्रीन हाउस गैसें निर्मित होने से ग्लोबल वार्मिंग तथा जलवायु परिवर्तन घटनाओं को तीव्रता प्राप्त होती है। जलवायु परिवर्तन के कारण वैश्विक तापक्रम जैसे कारकों में बहुत तेजी से परिवर्तन होता आया है। इसके पश्चात वर्षा की अनिश्चितता तथा अनियमितता में वृद्धि हुई है साथ ही बाढ़ सूखा अकाल सुनामी हिमस्खलन भूस्खलन जैसी प्राकृत आपदाओं का कई देश हर वर्ष सामना करते आ रहे हैं। उनके सम्मुख बड़ी विकट स्थिति उत्पन्न होती आई है, और यही प्राकृतिक आपदाएं उन देशों को फिर से गरीबी के दलदल में ढकेल देती है जहां भुखमरी का बोलबाला होता है। विश्व में कुछ देश ऐसे हैं जिनमें जिंबाब्वे, सीरिया,लीबिया, सोमालिया तथा अधिकांश अफ्रीकी देश, दक्षिण एशियाई लैटिन अमेरिकी देशों में भोजन,रोटी के लिए लंबी-लंबी लाइन लगती देखी गई है। दूसरी तरफ विकसित और अमीर देशों में भी लाइन लगती है, लेकिन वहां पर विडंबना यह है कि यह लाइन रोटी के लिए नहीं बल्कि आईफोन, स्मार्टफोनऔर गैजट्स के लिए लगाई जाती है।
अनेक गरीब देशों में सबसे बड़ा संकट विकास बनाम पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे को लेकर सामने आया है। जहां यह देश विकास की इच्छा तो रखते हैं पर दूसरी और विकसित देश गरीब देशों को पर्यावरण संरक्षण की सीख दे कर इनके संसाधनों पर रोक लगाने का प्रयास करते हैं। जिससे इनके अस्तित्व तथा संप्रभुता पर गहरी चोट लगती है। यह एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आता है। विकासशील देशों को पर्यावरण संरक्षण जैसी बातें गरीबी के सामने एक चुनौती के रूप में दिखाई देती है। यदि ये देश भुखमरी, गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी जैसे समस्याएं को सुलझाना चाहते हैं तो दूसरी तरफ पर्यावरण संरक्षण के साथ संतुलन बिठाना कठिन हो जाता है।
आज विकसित देशों में अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और अन्य अमीर यूरोपीय देश पर्यावरण संतुलन की बात तो करते हैं पर जहां तकनीकी मदद या संरक्षण की बात को तो यह अपना हाथ पीछे खींचने में भी नहीं चुकते हैं। गरीब तथा विकासशील देश जब भी विकास को प्राथमिकता देने का प्रयास करते हैं तो इसके परिणाम स्वरूप पर्यावरण को क्षति होना लाजमी होता है। इसके अलावा इन्हें वैश्विक महाशक्तियों के दबाव भी झेलने पड़ते हैं। गरीब देशों के उत्पादों को खरीदने में बड़े बाजार या यूं कहें कि विकसित राष्ट्र गुणवत्ता की कमी,तकनीकी कमी कहकर तिरस्कृत तथा वापस करने से नहीं चूकते हैं। इस मामले में विकसित राष्ट्र का विकासशील,गरीब राष्ट्र के बीच एक गहरी खाई बन चुकी है और संयुक्त राष्ट्र संघ मूकदर्शक बना इस मामले में हाथ में हाथ धरे बैठा रहता है। बड़ी जनसंख्या वाले देश जैसे भारत इंडोनेशिया एवं एशिया के अन्य देश विकसित राष्ट्रों के लिए एक बड़ा बाजार जरूर है, पर वहां पर भूखमरी और जलवायु परिवर्तन के मामले में ये सभी बड़े तथा विकसित राष्ट्र खामोश रहते हैं।
भारतीय संदर्भ में यह जरूर कहा जा सकता है कि विगत 10 वर्षों में जलवायु परिवर्तन तथा गरीबी उन्मूलन पर बहुत ज्यादा प्रयास कर नई नई योजनाएं बनाई गई हैं। जैसे राष्ट्रीय हरित मिशन, राष्ट्रीय सतत पर्यावास मिशन, राष्ट्रीय ऊर्जा संवर्धन मिशन पर बहुत सारी योजनाये बनाकर कार्य किया गया है। भारत देश अपनी योजनाओं में छोटे विकासशील राष्ट्रों को भी शामिल किया है और उनकी खुलकर मदद कर रहा है, यह विकसित राष्ट्रों के लिए एक उदाहरण भी है कि उन्हें छोटे तथा गरीब राष्ट्रों को खुलकर मदद करनी चाहिए।
(लेखक, रायपुर, छत्तीसगढ़)

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