स्वास्थ्य मंत्री जी जरा सुनिए! हमें भी कुछ कहना है

- प्रो नंदलाल मिश्र
यों तो आप स्वयं में स्वस्फूर्त मंत्री रहे हैं और बहुत ही व्यवस्थित तरीके से अपने मंत्रालयों का कार्य सम्हालते रहे हैं पर आपका स्वास्थ्य विभाग बहुत दिनों से अव्यवस्थित है। अब आपको जिम्मेदारी मिली हुई है और उम्मीद है कि आपके कुशल नेतृत्व में यह विभाग बहुत जल्द अपने व्यवस्थित रूप में आ जायेगा। स्वास्थ्य एक ऐसा विषय है जहाँ से हर किसी को गुजरना होता है। लेकिन आम आदमी की धारणा बनी हुई है कि हे ईश्वर हमें अस्पताल और कचहरी न जाना पड़े। यहां किसी को कोई नहीं सुनता। यदि आपके पॉकेट में पैसा है तो वहां जाइये वर्ना आपके तन के कपड़े भी नीलाम हो जाएंगे। किसी एक आध अस्पताल को छोड़ दें तो पता चलेगा कि अधिकांश अस्पताल व्यवसाय का अड्डा बने हुए हैं।
आदमी बीमार होता है। वह नजदीक के अस्पताल में अपने को दिखाना चाहता है। मध्यमवर्गीय लोग या कमजोर आर्थिक आधार वाले लोग सबसे पहले देशी ईलाज से ठीक होने का प्रयास करते हैं। दो चार रोज देशी उपचार करते हैं। यदि बीमारी ठीक नहीं हुई तो गाँव के झोला डॉक्टर से ईलाज करवाते हैं वहाँ भी उन्हें आराम नहीं मिला तो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर जाते हैं जहाँ न तो डॉक्टर मिलता है न कम्पाउण्डर। थक हार कर वह जिला अस्पताल या प्राइवेट डॉक्टर को दिखाता है।
शहरों में या कस्बों में प्राइवेट डॉक्टरों की भरमार है। बड़े बड़े नर्सिंग होम, ऊंची ऊंची बिल्डिंगें सभी तरह की सुविधाओं से लैस इन नर्सिंग होम्स की कथा विचित्र है। बारह घंटे पहले इनके यहाँ नंबर लगता है। कम से कम छह घंटे बाद उनका नंबर आता है। डॉक्टर साहब मरीज को देखते हैं। उन्हें रोग समझ में नहीं आता। सो दस पंद्रह तरह की जांच लिख देते हैं। जांच रोगी अपने पसंद की पैथोलॉजी से नहीं करा सकता। डॉक्टर साहब की खुद की पैथोलॉजी में ही जांच होगी। यदि अपनी पैथोलॉजी नहीं है तो किसी अनुबंधित पैथोलॉजी से जांच कराई जाती है। मरीज जांच के लिए दो तीन दिन समय व्यतीत करता है। रिपोर्ट आती है। डॉक्टर साहब रिपोर्ट देखते हैं दवा लिखते हैं। दवा कहाँ से लेनी है डॉक्टर साहब के सहायक बताते हैं। या तो डॉक्टर साहब के खुद के मेडिकल स्टोर्स से या उनके अनुबंधित स्टोर्स से।आराम से मरीज का तीन चार दिन का समय और बीसों हजार रुपये का वारा न्यारा हो जाता है। यह एक बार का खर्च होता है। दुबारा पंद्रह दिन बाद मरीज को बुलाया जाता है।
      आधुनिक खान पान रहन सहन और जीवन शैली ने हर किसी को मरीज बना दिया है। व्यक्ति मजबूर है डॉक्टर के पास जाने के लिए।पर गरीब व्यक्ति जाए तो कहाँ जाय।स्वास्थ्य सुविधाओं का सरकारीकरण बड़ा विचित्र संदेश दे रहा है। वहां डॉक्टर ही नहीं मिलते जहां मिलते वहां ईलाज कराना सबके बूते की बात नहीं।



डॉक्टरों की कमी देश में है इसमे कोई दो राय नहीॆ। परंतु यदि इस पर ध्यान दिया जाय तो ये समस्याएं कम हो सकती हैं। सर्वप्रथम तो स्वास्थ्य शिक्षा की पुनर्संरचना की जाय। जरूरी नहीं कि सभी एमबीबीएस करें। या सभी बीएएमएस करें। यदि बायो ग्रुप का लड़का डिग्री लेना चाहें तो उन्हें इस तरह की शिक्षा उपलब्ध करानी चाहिए कि वह प्राथमिक उपचार में दक्ष हो जाय। इसके लिए उसे एमएससी (जनरल मेडिसिन) या एमएससी (मलेरिया एवं सामान्य बुखार) जैसे पाठ्यक्रम उपलब्ध कराने चाहिए।इससे जो डॉक्टरों का कॉकस बना हुआ है वह मोनोपोली समाप्त हो जाएगी। हाँ सर्जरी या गंभीर रोगों के लिए अलग से डिग्री पर विचार करना चाहिए। अधिकांश बीमारियां सामान्य होती हैं जिसे एमएससी वाला छात्र भी इलाज कर सकता है। आजकल दो बीमारियां ऐसी हैं जो कॉमन हो गयी हैं-पहली शुगर और दूसरी बीपी। इसके लिए जरूरी नहीं है कि एमबीबीएस डॉक्टर ही इलाज करे। एमबीबीएस जैसे पाठ्यक्रमों को पूर्ण करने में अत्यधिक धन की जरूरत होती है। यदि छोटे छोटे रोगों के लिए एमएससी स्तर पर पाठ्यक्रम शुरू हो जाय तो समस्याएं बहुत हद तक नियंत्रित की जा सकती हैं।
 माननीय प्रधानमंत्री ने कुछ सपने दिखाए और जेनेरिक दवाओं की बातें की।कई जगहों पर जन औषधि केंद्र चल रहे हैं पर वहां भी सभी दवाएं मिल नही पातीं।उस जेनेरिक दवाओं के विस्तारीकरण पर विराम सा लग गया।रोगी महंगी दवा खरीदते खरीदते परेशान हो जाते हैं।माननीय मंत्री जी आपके कार्य प्रशंसनीय हैं। इस क्षेत्र में आमूल चूल परिवर्तन जरूरी है ताकि जनता लाभान्वित हो सके। उसे नजदीक के अस्पतालों में अच्छा से अच्छा इलाज मिल सके। यदि एक परिवर्तन कर दिया जाय कि हर डॉक्टर जो प्रैक्टिस करना चाहता हो उसका पंजीयन और लाइसेन्स उसे तभी जारी किया जाय जब उसे ग्रामीण क्षेत्र के अस्पतालों में कार्य करने का कम से कम तीन वर्ष का अनुभव हो। ग्रामीण जनता के फीडबैक के आधार पर ही उसे प्रैक्टिस करने के लिए पंजीयन की अनुमति दी जाय।
यदि सभी पास आउट डॉक्टरों को ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा देना अनिवार्य कर दिया जाये तो इसका फायदा जनसामान्य को मिल सकता है।नर्सिंग होम के नाम पर बेतहाशा वसूली न्यायसंगत नहीं है। जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता भी जरूरी है और उससे आवश्यक यह है कि डॉक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए मेडिकल पाठ्यक्रमों की पुनर्संरचना। तभी स्वास्थ्य सेवाओं में गुणात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है।
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय, चित्रकूट सतना।

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