कुपोषण की समस्या पर ध्यान देना जरूरी

-प्रह्लाद सबनानी
पूरे विश्व में आज लगभग सभी देश प्रति व्यक्ति आय एवं सकल घरेलू उत्पाद में हो रही वृद्धि के माध्यम से आर्थिक प्रगति को आंकने का प्रयास करते हैं। इस माध्यम से आर्थिक प्रगति आंकने पर आर्थिक प्रगति तो दिखाई देती है परंतु कई देशों में तेजी से अपने पांव पसार रही कुपोषण की समस्या पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता है। आज विश्व के कई देशों, विशेष रूप से अफ्रीका एवं एशिया क्षेत्र के देशों में कुपोषण की समस्या विकराल रूप धारण करती नजर आ रही है। भारत में भी कुपोषण की स्थिति बहुत गम्भीर है।



कुपोषण एक ऐसी स्थिति है जिसके अंतर्गत नागरिकों द्वारा भोजन एवं पौष्टिक पदार्थों को सही मात्रा में ग्रहण न करने के कारण उनके शरीर को पूरा पोषण नहीं मिल पाता है। चूंकि स्वस्थ रहने के लिये प्रत्येक व्यक्ति को भोजन के जरिये ऊर्जा और पोषक तत्त्व प्राप्त करना आवश्यक है, परंतु यदि भोजन में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन तथा खनिजों सहित पर्याप्त पोषक तत्त्व नहीं मिलते हैं तो वह व्यक्ति कुपोषण का शिकार हो जाता है। शरीर को लंबे समय तक संतुलित आहार न मिलने से व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण वह आसानी से किसी भी बीमारी का शिकार हो सकता है। कुपोषण बच्चों को सबसे अधिक प्रभावित करता है, यदि देश में बच्चे ही कुपोषण का शिकार होंगे और आगे चलकर बलिष्ठ नागरिक नहीं बन पाएंगे तो देश का भविष्य ही अन्धकारमय होने लगेगा। कुपोषण से नागरिकों की उत्पादकता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है एवं बच्चों की तो कई बार कुपोषण के चलते मृत्यु ही हो जाती है। इससे ने केवल देश के आर्थिक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ता है बल्कि देश की छवि भी खराब होती है।
अक्तूबर 2019 में जारी वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत 117 देशों में से 102वें स्थान पर रहा था। यूनिसेफ द्वारा जारी एक प्रतिवेदन के अनुसार, वर्ष 2017 में सबसे कम वजन वाले बच्चों की संख्या वाले देशों में भारत 10वें स्थान पर था। इसके अलावा वर्ष 2019 में ‘द लैंसेट’ नामक पत्रिका द्वारा जारी प्रतिवेदन में यह बात सामने आई थी कि भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की 10 लाख मौतों में से तकरीबन दो-तिहाई की मृत्यु कुपोषण के कारण होती है। अपनी एक रिपोर्ट में विश्व बैंक ने भारत की प्रशंसा करते हुए कहा है कि भारत ने गरीबी से लड़ने के लिये अतुलनीय कार्य किया है और इससे देश में गरीबी दर में काफी गिरावट दर्ज की गई है। यद्यपि देश में गरीबी दर में गिरावट आ रही है, किंतु कुपोषण की समस्या आज भी देश में बरकरार है। कुपोषण की गम्भीर समस्या केवल भारत ही नहीं बल्कि विश्व के कई अन्य देशों में भी है।
'द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन 2019’ की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में 5 वर्ष तक की उम्र के प्रत्येक 3 बच्चों में से एक बच्चा कुपोषण अथवा अल्पवजन की समस्या से ग्रस्त है। पूरे विश्व में लगभग 20 करोड़ तथा भारत में प्रत्येक दूसरा बच्चा कुपोषण के किसी-न-किसी रूप से ग्रस्त है। एक अन्य जानकारी के अनुसार भारत में 6 से 23 महीने के कुल बच्चों में से मात्र 9.6 प्रतिशत को ही न्यूनतम स्वीकार्य आहार प्राप्त हो पाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि देश में कुपोषण की समस्या केवल बच्चों में ही पाई जा रही है, वर्ष 2017 में वयस्कों की कुल आबादी में देश की 23 प्रतिशत महिलाएं और 20 प्रतिशत पुरुष कुपोषण का सामना कर रहे थे। भारत में पौष्टिक और गुणवत्तापूर्ण आहार के संबंध में जागरूकता की कमी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जिसके कारण तकरीबन पूरा परिवार ही कुपोषण का शिकार हो जाता है।
भारत में कुपोषण की समस्या को हल करने हेतु समय-समय पर कई प्रयास किए गए हैं और विभिन्न प्रकार की योजनाएं भी चलाई गईं हैं। वर्ष 1993 में राष्ट्रीय पोषण नीति की घोषणा की गई, वर्ष 1995 में केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित मिड-डे मील कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने वर्ष 2017 में देश भर में कुपोषण की समस्या को हल करने के उद्देश्य से पोषण अभियान की शुरुआत की। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य परिणामोन्मुखी दृष्टिकोण के माध्यम से देश भर के छोटे बच्चों, किशोरियों और महिलाओं में कुपोषण तथा एनीमिया को चरणबद्ध तरीके से कम करना है। इसी प्रकार, वर्ष 2019 में केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने भारतीय पोषण कृषि कोष की स्थापना की इसका उद्देश्य कुपोषण को दूर करने के लिये बहुक्षेत्रीय ढांचा विकसित करना है जिसके तहत बेहतर पोषक उत्पादों हेतु 128 कृषि जलवायु क्षेत्रों में विविध फसलों के उत्पादन पर जोर दिया जाएगा। उक्त वर्णित योजनाओं और प्रयासों के बावजूद देश कुपोषण की चुनौती से पूर्णतः निपटने में असमर्थ ही रहा है।
भारत में समेकित बाल विकास सेवा कार्यक्रम भी आंगनवाड़ियों के एक विस्तृत नेटवर्क द्वारा संचालित हो रहा है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत पूरक पोषण को स्कूल पूर्व शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को बच्चों, गर्भवती एवं धात्री महिलाओं और कुपोषित बालिकाओं तक पहुंचाया जाता है। इस कार्यक्रम को प्रभावी तरीके से लागू करने के प्रयास लगातार किए जा रहे हैं। किन्तु आंगनवाड़ी केन्द्रों की अपर्याप्त संख्या, कम मानदेय प्राप्त आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, 3 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिये झूलाघर की अनुपलब्धता जैसी समस्यायें धरातल पर नजर आती रही हैं।
मध्य प्रदेश राज्य में भी कुपोषण की स्थिति काफी चिंताजनक है। एक जानकारी के अनुसार मध्य प्रदेश में 55 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं और 55 प्रतिशत बच्चों की मौत कुपोषण के कारण होती है। मध्य प्रदेश में आदिवासी क्षेत्रों में मात्र 49,784 आंगनवाड़ी केन्द्र हैं जबकि वास्तविक आवश्यकता 1.10 लाख केन्द्रों की है। इसी प्रकार शहरी क्षेत्रों में भी 16,849 आंगनवाड़ी केन्द्रों की जरूरत है। अभी हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार ने कुपोषण को समाप्त करने के उद्देश्य से समाज के सक्षम व्यक्तियों एवं संस्थाओं से आह्वान किया है कि वे आंगनवाड़ी केंद्रों को गोद लें।
इस प्रयास के अंतर्गत अभी तक 62,237 लोगों ने आंगनवाड़ी केंद्रों को गोद लेने में रुचि दिखाई है एवं इनमें से 24,218 लोगों ने प्रदेश के महिला एवं बाल विकास विभाग को अपनी सहमति भी दे दी है। राज्य सरकार का मानना है कि यदि जनप्रतिनिधि, अधिकारी या क्षेत्र के प्रभावशाली लोग आंगनबाड़ी केंद्रों से जुड़ेंगे, तो सामाजिक सहभागिता बढ़ेगी, केंद्रों में व्यवस्थाएं सुधरेंगी एवं संसाधन भी बढ़ेंगे। मध्य प्रदेश सरकार की यह एक अभिनव पहल कही जा सकती है।
अब कुल मिलाकर प्रश्न यह उभरकर आता है कि देश में लगातार तेज हो रहे आर्थिक विकास के बीच यदि नागरिकों में यदि कुपोषण की समस्या बनी रहेगी तो भारत को विश्व गुरु किस प्रकार बनाया जा सकेगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आर्थिक चिंतक स्वर्गीय पंडित श्री दीनदयाल उपाध्याय जी का स्पष्ट मत था कि राजनीति, समाज के अंतिम छोर पर बैठे एक सामान्य व्यक्ति को ऊपर उठाने की सीढ़ी है। भारत का विकास राष्ट्रवाद पर आधारित होकर विश्व कल्याणकारी होना चाहिए क्योंकि यह “वसुधैव कुटुम्बकम” की संकल्पना के आधार पर “सर्वे भवन्तु सुखिन:” को ही अपना अंतिम लक्ष्य मानता है। यही कारण है कि पंडित श्री दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी राष्ट्रवादी सोच को “एकात्म मानववाद” के नाम से सामने रखा। इस सोच के क्रियान्वयन से समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति का विकास होगा। उसका सर्वांगीण उदय होगा। यही हम सभी भारतीयों का लक्ष्य बने और इस लक्ष्य का विस्मरण न हो, यही सोचकर इसे “अन्त्योदय योजना” का नाम दिया गया। अंतिम व्यक्ति के उदय की चिंता ही अन्त्योदय की मूल प्रेरणा है। इसी तर्ज पर यह भी कहा जाता है कि किसी भी देश का आर्थिक विकास तब तक कोई मायने नहीं रखता जब तक वह समाज में अंतिम छोर पर बैठे व्यक्ति को फायदा नहीं पहुंचाता है।
भारत को कुपोषण के श्राप से मुक्त कराने के मानवीय कार्य को विभिन स्तरों पर सरकारों के साथ-साथ स्वयंसेवी, धार्मिक, सामाजिक, औद्योगिक एवं व्यापारिक संगठनों को एक बार पुनः आगे आकर इस महान कार्य को संगठित तरीके से सम्पन्न करना चाहिए।

- सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक, भारतीय स्टेट बैंक।

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