जनता किसे बनाएगी सिरमौर
पहले चरण का चुनाव प्रचार थम गया है। अब देखना है कि पोलिंग बूथ पहुंचकर जनता किसको चुनती है। रिवायती दलों ने चुनावी दंगल में ताल ठोक रखी है। उनके अधिकांश पुराने उम्मीदवारों को सभी दांव-पेचों का भान है। फिर भी चुनाव से पहले का परिदृश्य िसबार गायब रहा। दरअसल चुनाव एक जीवंत प्रजातंत्र का उत्सव होता है। पहले चुनाव वाकई उत्सव सरीखे थे– मतदान की तारीख से हफ्तों पहले बैंड-बाजे बजते, झंडियां-गुब्बारे हवा में लहराने लगते, वयस्कों की टोलियों में राजनीति पर गर्मागर्म चर्चाएं चलतीं तो उत्साहित बच्चे प्रचार-काफिले के इर्द-गिर्द मंडराते। उम्मीदवार भी जाने-माने स्थानीय हस्ती होते थे। मतदाताओं के साथ उनका सीधा राब्ता था। तब पैसे के खेल को तरजीह न थी। जोश के अलावा बाकी सब दिखावा रहित था। वे दिन अब नहीं रहे। उनकी जगह नए रंग-ढंग ने ले ली। आज छद्म विकास के दावे और अच्छे दिनों के वादे नए खेल हैं। समाजवाद, नेहरूवादी समाजवाद, पूंजीवाद आदि सिद्धांतों की बात हाशिये पर है।
ऐसा कोई नेता और दल दिखाई नहीं देता, जिसके पास जनता की समस्याओं का हल हो, जो उनके सपनों को हकीकत में बदले और जिसके ध्येय स्पष्ट हों और जो अपनी राह पर दृढ़ निश्चयी हो। जनता को अपना वर्तमान चाहिए, जिसमें उसकी मूलभूत समस्याओं का समाधान हो। बहुत हो चुका लोगों का वर्गीकरण कर उन्हें ‘गरीबी रेखा से नीचे’ या ‘अन्य पिछड़ी श्रेणियों’ में रखना। बस अब और नहीं, फिलहाल हमें रोजगार, सम्माननीय वेतन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं चाहिए और गरीब किसान को न्यूनतम खरीद मूल्य। युवाओं को रोजगार चाहिए। महामारी के दौरान तबाही ने चेताया कि देश के स्वास्थ्य-तंत्र में आमूल-चूल सुधार जरूरी है। लेकिन हैरानी की बात है कि क्या एक भी राजनीतिक दल या उम्मीदवार ने इसकी बात की? कोरोना लहरों में स्वास्थ्य-तंत्र की नाकामी की वजह से लाखों लोग काल के गाल में समा गए, फिर भी क्या किसी ने चुनाव प्रचार में हल्का-सा भी जिक्र किया?
आखिर कब तक पीएचडी और स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त युवा चपरासी या चतुर्थ श्रेणी जैसी मामूली रिक्तियों के लिए आवेदन करते रहेंगे– इनका लावा फूटकर बहने से कब तक रोका जा सकेगा? मौजूदा नेतृत्व के लिए अब समय आ गया है कि अपने तौर-तरीकों में बड़ा बदलाव लाएं। लोगों को वह दें, जिसके वे हकदार हैं।
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